राजनीति के अपराधीकरण को रोकना ही होगा


राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर से गेंद कार्यपालिका के पाले में डाल दी है। पिछले महीने 25 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों- उस समय के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायाधीश आर.नरीमन, न्यायाधीश ए.खानविलकर, न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ और न्यायाधीश इंदू मल्होत्रा की संविधान पीठ ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि अदालत उन अपराधियों को जिनके मुकदमें लंबित हैं और आरोप भी तय हो चुके हैं, चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकती। क्योंकि न्यायशास्त्र की निगाह में किसी अभियुक्त के विरूद्ध जब तक दोष सिद्ध न हो जाए, तब तक वह निर्दोष माना जाता है या माना जाना चाहिए। लेकिन वरिष्ठ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह स्पष्ट रूप से कहा कि संसद चाहे तो कानून बना सकती है। यही नहीं इस पीठ ने तो बल्कि सवाल भी उठाया कि राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए आखिरकार संसद कानून क्यों नहीं बनाती?
हालांकि अगर सरकार और चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा दिशा-निर्देशों को ईमानदारी से लागू करवाएं तो भी किसी हद तक राजनीति के अपराधीकरण को रोका जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीशों वाली इस संविधान पीठ ने यह कहते हुए कहीं न कहीं राजनीति के अपराधीकरण के लिए सरकार के सामने ही सवालिया निशान लगा दिया है। गौरतलब है कि राजनीति में अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। एक अध्ययन के मुताबिक साल 2004 में जहां महज 24 फीसदी सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि से आये थे, वहीं 2009 में इनकी संख्या बढ़कर 30 फीसदी और 2014 में इनकी संख्या 34 फीसदी तक हो गई। निश्चित रूप से लोकतंत्र में अपराधियों को दूर रखने की जिम्मेदारी संसद की है। लेकिन वास्तविकता यह भी है कि यह किसी एक दल या पार्टी की बात नहीं है बल्कि धीरे-धीरे सभी राजनीतिक पार्टियों और दलों में अपराधियों की पकड़ बढ़ती जा रही है। 
विडंबना यह भी है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी मतदाताओं ने भी आपराधिक छवि वाले नेताओं को भारी बहुमत से जिताया है। जो इस बात का सबूत है कि धन, बल और बाहुबल के साथ-साथ हमारा आम मतदाता सामंती संस्कारों और जातीय वर्चस्व के अंधजाल में भी अभी तक फंसा हुआ है। यह जकड़न इतनी मजबूत है कि महानगरों के वातानुकुलित ड्राइंगरूमों में बैठकर इसकी ताकत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि हकीकत यही है कि देश का बहुसंख्यक अनपढ़ और गरीब ग्रामीण मतदाता यह जानता ही नहीं कि वह इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए क्या करे, कहां जाए? सच यह भी है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के आवारा पूंजी, धर्म और अपराध के विष वृक्ष कैसे फलते-फूलते। यह सारा समीकरण इस वजह से बहुत मजबूत है कि हिंदुस्तान में चुनाव बहुत महंगे हैं, ऐसे में बिना अपराधियों की सहायता के महंगे चुनावों का बोझ उठाना आम राजनेताओं के लिए मुश्किल है।  वैसे इस निष्कर्ष का कारण एक शॉर्टकट भी है। जो बाहुबली एक जमाने में नेताओं का समर्थन किया करते थे, जब उन्होंने देखा कि नेता उन्हीं की ताकत से जीतते हैं और ऐश करते हैं तो फिर वे दूसरों को जितवाने की बजाय खुद राजनेता बनकर जीतने लगे। इसी के साथ ही देश में राजनीति का जो धार्मिक धुरीकरण हुआ उसके कारण साम्प्रदायिक राजनीति मजबूत हुई, जिससे मस्जिद, मंदिर और मठों की भूमिका राजनीति में दोबारा से स्थापित हुई और यह स्थिति अभी भी लगातार मजबूत हो रही है। पिछले 30-40 सालों में प्रमुख राजनीतिक दलों और ज्यादातर धार्मिक संस्थाआें जिसमें बाबाओं से लेकर गुरु, संत, महंत और स्वामी आदि सबने हजारों, करोड़ रुपये की संपत्ति जमा कर ली है। क्योंकि इन दोनों को ही यानी धार्मिक संस्थाओं और राजनीतिक दलों को आयकर से पूरी तरह से छूट मिल रही है। 
देखा जाए तो इस सबने भारतीय राजनीति में सत्ता, धर्म और अपराध का एक नशीला कॉकटेल तैयार किया है। धार्मिक संस्थाओं और राजनीति के जरिये बड़े पैमाने पर काले धन को रातों रात सफेद करने का काम किया गया है, इससे राजनीति में आपराधिक तत्वों की पकड़ तो मजबूत हुई ही है। राजनीति में पूंजी के अनाप-शनाप इस्तेमाल और उस इस्तेमाल से मनमानी नतीजे हासिल करने का रास्ता भी ईजाद हुआ है। यही वजह है कि देखते-देखते राजनीति में धर्माचार्यों का हस्तेक्षप बहुत ज्यादा हो गया है। इस कारण देश की तमाम मूलभूत समस्याएं न सिर्फ  ज्यों की त्यों अपनी-अपनी जगहों पर मौजूद हैं बल्कि ये लगातार बढ़ भी रही हैं। यह अकारण नहीं है कि हाल के सालों में तमाम मीडिया और सोशल मीडिया के द्वारा किये गये जागरूक अभियानों के बावजूद लगातार समाज में दलितों के प्रति गुस्सा और हिंसा बढ़ रही है। निर्धनों का जीना हर गुजरते दिन के साथ कठिन होता जा रहा है और अशिक्षित न सिर्फ  असहाय हैं बल्कि अशिक्षित बने रहने को बाध्य हैं। 
राजनीति में अपराधीकरण को रोकना सिर्फ  राजनीति की सुचिता का सवाल नहीं है, न ही यह महज राजनीतिक मूल्यों की बात है। सच बात तो यह है कि जब तक राजनीति में आपराधिक तत्वों की घुसपैठ बनी रहेगी, तब तक राजनीति लोकतंत्र का वाहक नहीं बनेगी। इसलिए  राजनीति को आपराधिक सांठगांठ से अलग होना ही चाहिए।  -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर