जी. साथियन खतरा मोल लेने की हिम्मत ने विजेता बनाया

‘स्वर्ण पदक सोने के नहीं बने होते हैं बल्कि पसीने, पक्का इरादा और मुश्किल से मिलने वाले धातु यानी हिम्मत के बने होते हैं।’ ऐसा डैन गेबल ने कहा था जो कि भारत के टॉप टेबल टेनिस खिलाड़ी जी साथियन पर एकदम सही बैठता है। इस 25 वर्षीय खिलाड़ी ने बड़े सपने देखे और उन्हें साकार करने की असाधारण हिम्मत दिखाई। इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि पिछले तीन वर्ष के दौरान साथियन ने दो मुख्य एकल खिताब, राष्ट्रकुल खेलों में तीन पदक और एशियन गेम्स में ऐतिहासिक टीम कांस्य जीते हैं। वर्ल्ड टीम चैंपियनशिप में भारत ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 13वां स्थान प्राप्त किया था, साथियन इस टीम का भी हिस्सा थे। अत: 2014 में आईटीटीएफ विश्व रैंकिंग में जहां साथियन 300 के आसपास घूम रहे थे, इस वर्ष टॉप 50 के भीतर पहुंचे और इस समय 40वीं रैंकिंग पर हैं। ये सब नतीजे यूं ही हासिल नहीं हुए हैं। साथियन ने बेहतर होने की निरंतर इच्छा प्रदर्शित की है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण रहा कि उन्होंने अपने ‘पहले-सुरक्षा’ दृष्टिकोण को त्याग दिया। इसमें शामिल रही रोजाना अपने कोच एस रमण के साथ 8-10 घंटे की ट्रेनिंग, नई सर्व व रिसीव सीखना, इससे भी महत्वपूर्ण यह कि मुख्य प्रतियोगिताओं में अपने से उच्च रैंकिंग प्राप्त खिलाड़ियों के विरुद्ध साहसिक विकल्प का चयन करना। इन प्रयासों का शानदार नतीजा पिछले साल स्पेनिश ओपन में मिला। स्वयं राष्ट्रकुल पदक विजेता 49 वर्षीय रमण के अनुसार, ‘साथियन ने यह प्रतियोगिता इसलिए जीती क्योंकि फाइनल में वह जापान के कजुहिरो योशिमुरा के खिलाफ  रिस्क उठाने से पीछे नहीं हटे। बेस्ट ऑफ सेविन के पांचवे गेम में जब स्कोर 8-8 और 9-9 था तो साथियन ने वह खेल नहीं खेला जिसके लिए वह जाने जाते हैं।’ साथियन के मुताबिक, ‘आमतौर से मैं इस स्तर पर रिस्क नहीं लेता हूं । लेकिन मैंने अपनी सर्व के साथ कुछ नया किया। मैंने वह किया जो मैंने पहले कभी नहीं किया था। मुझे यह विचार आया। वास्तव में मैंने फाइनल में अपने को बहुत बदला, जिसकी शुरुआत मेरी विचार प्रक्त्रिया से हुई। मैंने सर्व की शैली बदली, स्पिन और उसे टेबल पर कहां कराना है, यह भी।’ इस सबसे साथियन ने न सिर्फ अपने प्रतिद्वंदी को अचंभे में डाल दिया बल्कि कोच को भी सुखद आश्चर्य हुआ। रमण के लिए आखिरकार उनका शागिर्द रिस्क लेने के मामले में उन्हीं के स्तर तक पहुंच चुका था। यह प्रयास सफल रहा तो फिर अन्य प्रतियोगिताओं में भी इसका प्रयोग किया गया। इसी शैली से साथियन ने 2018 विश्व टीम चैंपियनशिप के क्लासिफिकेशन मैच में सिंगापुर के गाव निंग (राष्ट्रकुल चैंपियन) और फ्रांस के एम्मानुएल लेबेस्सोन (2016 में यूरोपीय चैंपियन) को पराजित किया। यह जीतें वास्तव में बहुत बड़ी जीते हैं। साथियन ने हमेशा से ही यह माना है कि उन्हें सफलता इससे बहुत पहले मिल चुकी होती अगर इंजीनियरिंग की स्टडी (2010-14) उनके कॅरियर में बाधा न बनती। इस अवधि के दौरान उनके समकालीन सौम्याजित घोष व हरमीत देसाई, जिनके खिलाफ  जूनियर्स में उन्हें सफलता मिली थी, बड़े मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व करते रहे। एक साथ दोनों खेल व शिक्षा का प्रबंधन करना कठिन होता है। लेकिन हर चीज के अपने लाभ भी होते हैं। साथियन को गो-स्पोर्ट्स फाउंडेशन से भी सहारा मिला, स्पोर्ट्स पौष्टिकता, मनोविज्ञान, मेंटल कंडीशनिंग व बायो-मैकेनिक्स के रूप में। रमण के साथ यात्रा भी 2012 के अंत में शुरू हुई। यह नई यात्रा थी, साथियन के लिए एक तरह से दूसरी पारी। इसमें सीनियर स्तर पर वही काम करना था जो जूनियर स्तर पर किया गया था- खिताब जीतना। एक खिलाड़ी के रूप में साथियन की खोज तीन बार के राष्ट्रीय चैंपियन वी. चन्द्रशेखर ने की थी और उन्होंने ही उनकी ग्रूमिंग की। साथियन को पहला बड़ा खिताब पुणे में आयोजित 2008 के राष्ट्रकुल युवा खेलों में मिला। यह उनके लिए ‘टर्निंग पॉइंट’ था क्योंकि इससे टेबल टेनिस में कॅरियर के द्वार खुलने की संभावना थी। उन्हें विदेश में सीनियर राष्ट्रीय दल के साथ ट्रेनिंग का अवसर मिला और फलस्वरूप विश्व जूनियर टीम चैंपियनशिप में कांस्य पदक भी। लेकिन जब वह इंजीनियरिंग कॉलेज में थे तो टीटी को पर्याप्त समय नहीं दे पाते थे। 2014 में इंजीनियरिंग का बोझ उनके कांधों पर से उतरा और वह अपनी फिटनेस पर फोकस करते हुए ट्रेनिंग पर ध्यान देने लगे। ग्रेजुएशन के बाद अपने पहले नेशनल-रैंकिंग टूर्नामेंट में साथियन ने नई दिल्ली में फाइनल में सौम्याजित को हराया। इससे उनके प्रतिद्वंदी जान गये कि राष्ट्रीय मंच पर साथियन का पुन: आगमन हो चुका है। साथियन ने अपने कंप्यूटर से इंजीनियरिंग की फाइलों को डिलीट कर दिया और उनकी जगह टीटी की फाइलों को लोड कर दिया। 2015 में उन्होंने लगभग एक दर्जन अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया। फिर अचानक उनके पिता का निधन हो गया। इसने उन्हें बदल दिया।  उन्हें एहसास हुआ कि उनके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं है, उन्होंने अपना सारा गुस्सा खेल में निवेश कर दिया और वह वास्तव में आक्त्रामक खेलने लगे।  इससे हुआ यह कि 26वीं रैंकिंग के बावजूद उन्होंने बेल्जियम ओपन जीता, जिसमें उन्होंने स्थानीय खिलाड़ी सेड्रिक नुय्तिन्च्क को 4-0 से हराया। इससे उनका विश्वास बढ़ा और वह अल्टीमेट टेबल टेनिस में देखने को मिला, जिसमें वह एकमात्र भारतीय थे जिसे हार का सामना नहीं करना पड़ा।