एक अनूठा देवोत्सव है कुल्लू का दशहरा

कुल्लू दशहरा के बारे में सभी जानते हैं कि इसका संबंध भगवान राम के साथ होने के बावजूद यह एक देवोत्सव है। लोकदेवताओं का कुम्भ, जहां एक साथ सैकड़ों देवी-देवता अपनी-अपनी प्रजा के साथ एकत्र होते हैं। सत्रहवीं सदी से पूर्व इस पहाड़ी क्षेत्र में किसी प्रकार की विजय दशमी नहीं हुआ करती थी। तब यहां केवल स्थानीय देवी-देवताओं के मेले हुए करते थे। राजा भी शिव और शक्ति के उपासक थे, परन्तु एक ऐतिहासिक घटनाक्रम के बाद न केवल राजा बल्कि समस्त प्रजा ने वैष्णव मत अपनाया परन्तु फिर भी देवी-देवताओं की पूजा यथावत् रही।
यहां के राजा जगत सिंह का कार्यकाल 1637 से 1662 तक रहा। कहते हैं कि राजा बहुत प्रतापी व पराक्रमी तो था परन्तु बहुत हठी भी था। उल्लेख मिलता है कि राजा जगत सिंह को रूपी घाटी के टिप्परी नामक गांव के एक ब्राह्माण दुर्गादत्त के कुछ शरीकों ने झूठी सूचना दी कि दुर्गादत्त के पास एक पत्थ (28 छटांक) सुच्चे व अनबिंधे मोती हैं। सूचना मिलते ही राजा ने सच का पता करने के लिए दुर्गादत्त के पास अपने दूत भेज दिए। दुर्गादत्त ने राजा के दूतों को सच-सच बता दिया कि उसके पास कोई मोती नहीं परंतु दूतों ने दुर्गादत्त को चेतावनी दी कि अब राजा फलां दिन इन मोतियों को लेने स्वयं आएंगे। निर्धारित दिन राजा दुर्गादत्त के पास मोती लेने के लिए पहुंचा। असहाय एवं निरुपाय किन्तु स्वाभिमानी ब्राह्मण दुर्गादत्त ने राजा को एक बार फिर से कहा कि उसके पास मोती नहीं हैं, परन्तु राजहठ के आगे वह करता भी तो क्या। राजा का दबाव, बढ़ने पर उसने एक दिन अपने परिवार को घर के अंदर बंद कर उसमें आग लगा दी। फिर कटार निकाल कर वह अपने अंगों की एक-एक बोटी काट कर आग में फैंकता जाता और कहता, ‘ले राजा, तेरे एक पत्था सुच्चे मोती!’ इस तरह दुर्गादत्त ने राजा के हाथों पड़ने की बजाय अपने स्वाभिमान की रक्षा हेतु आत्मोत्सर्ग कर दिया। दुर्गादत्त के देहावसान के बाद राजा आत्म-ग्लानि से जल उठा। वह जैसे-तैसे अपनी राजधानी मकड़ाहर पहुंचा। उसका सुखचैन छिन गया। उसे भोजन में कीड़े नज़र आने लगे और पानी खून-सा दिखने लगा। ब्रह्महत्या के पाप से ग्रस्त राजा के लिए कई उपाय किए गए। इन्हीं उपायों में राजा के लोग कोठी नग्गर झीड़ी नामक स्थान पर पहुंचे जहां कृष्णदास पथहारी नामक एक सिद्ध वैरागी बाबा रहते थे। इन्हें लोग ‘फुआरी बाबा’ के नाम से भी जानते थे। बाबा ने उन्हें सलाह दी कि यदि राजा अयोध्या से भगवान राम की उस मूर्ति को लाएं, जिसे श्री राम ने अश्वमेध यज्ञ के दौरान बनाया था और फिर सारा राजपाट भगवान को सौंप दें तो ब्रह्म-हत्या के पाप से मुक्ति मिल सकती है। यही राजा का प्रायश्चित होगा अन्यथा दूसरा कोई  उपाय नहीं है। अयोध्या से भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा को लाना सरल काम नहीं था। पथहारी बाबा ने यह जिम्मा अपने शिष्यों में से एक दामोदर दास को सौंपा। गुरु आज्ञा का पालन करते हुए दामोदर दास अयोध्या पहुंचा जहां वह एक पुजारी का शिष्य बन गया और मंदिर के सारे भेद जाने। एक दिन मौका पाकर दामोदार दास रघुनाथ जी की प्रतिमा को लेकर रफूचक्कर हो गया। वहां के पुजारियों ने उसका पीछा तो किया परन्तु गुटका-सिद्धि के बल पर वह हरिद्वार पहुंच गया। अयोध्या का एक पं. जोधावर भी इसी सिद्धि के बल पर हरिद्वार पहुंचा और दामोदर दास से उस मूर्ति को छुड़ाने लगा, परन्तु जोधावर इस प्रतिमा को उठा तक नहीं पाया। तब जोधावर को समझने में देर नहीं लगी कि भगवान स्वयं दामोदर के साथ जाने के इच्छुक हैं। फिर वह भी दामोदर के साथ हो लिया। इस प्रतिमा को सन् 1651 में कुल्लू लाया गया। राजा ने समस्त राज्य रघुनाथ जी को सौंप दिया और स्वयं मात्र ‘छड़ीबरदार’ (सेवक) बन कर सेवा करने लगा। इसके बाद राजा ने एक विशाल यज्ञ रचाया। शैव मत छोड़कर वैष्णव धर्म अपनाया। उसका दैहिक कष्ट दूर हुआ। कुल्लू दशहरा के केन्द्र-बिन्दु भगवान रघुनाथ जी हैं, तो राज परिवार की अधिष्ठात्री देवी मनाली की हिडिम्बा माता की दशहरा में एक बड़ी भूमिका है। कुल्लू आगमन पर ही इस उत्सव का श्रीगणेश होता है, तो समापन भी इसी देवी के नेतृत्व में होता है। पूरे सात दिन ‘कटागली शाड़’ के ठीक मध्य रघुनाथ जी का शिविर लगा रहता है। शेष देवी-देवताओं की पालकियां व रथ उनके लिए निर्धारित स्थानों पर रहते हैं। रावण कुम्भकर्ण और मेघनाद के पुतलों का दहन मात्र प्रतीकात्मक होता है परन्तु लोक परम्पराओं का निर्वहण तो स्थानीय रुचि, रीति, प्रकृति और व्यवहार से ही संभव है और इसी परम्परा का नाम है कुल्लू दशहरा।