आरटीआई कानून पर मंडराता खतरा

सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) जब अक्तूबर 2005 में लागू हुआ तो यह नागरिक सशक्तिकरण के सशक्त हथियार के रूप में सामने आया, जिससे लोकतंत्र को मजबूत करने की संभावनाएं बढ़ गई थीं। इसके जरिये उच्च स्थानों में अनियमितताओं का पर्दाफाश होने लगा जैसे राष्ट्रकुल खेलों के आयोजन, 2जी स्पैक्ट्रम व कोयला ब्लॉक्स के आवंटन में घोटाले सामने आये। लेकिन जल्द ही खद्दरधारियों की समझ में आ गया कि पश्चिम का बिना सोचे-समझे अनुसरण करने से उन्होंने अपने गले में आरटीआई के रूप में जिंदा सांप लटका लिया है। इसलिए जहां यह सार्वजनिक बहस होनी चाहिए थी कि इस कानून को अधिक प्रभावी कैसे बनाया जाये, वहीं सरकार का इसके प्रावधानों को कमजोर करने का निरंतर प्रयास रहा है। 
विपक्ष भी इस विषय पर एकदम खामोश है, न इस सरकारी प्रयास का विरोध है और न ही इसे मुद्दा बनाया जा रहा है; क्योंकि उसे लगता है कि कल को उसके सत्ता में आने पर उसे भी इसका लाभ मिलेगा। परिणामस्वरूप इस समय आरटीआई कानून के समक्ष बहुआयामी चुनौतियां हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि अपने मूल रूप में आरटीआई कानून कई कारणों से अप्रत्याशित था, लेकिन तब भी उसने सूचना आयोगों को अपने निर्णय लागू करने के लिए पर्याप्त शक्तियां नहीं दी थीं। प्रार्थी को अगर कोई नुकसान हुआ है तो उसे मुआवज़ा अवार्ड करने के अतिरिक्त आयोग जनाधिकारियों को निर्देश दे सकते हैं कि इस कानून के तहत आवश्यक कदम उठाये जायें, लेकिन अगर ऐसे निर्देशों को नज़रंदाज़ कर दिया जाये तो आयोग असहाय है।
यह सही है कि अगर अधिकारी अपना कर्त्तव्य निर्वाह नहीं करता है तो आयोग उस पर अधिकतम 25,000 रुपये का जुर्माना कर सकता है या उसके खिलाफ  अनुशासनात्मक कार्यवाही की सिफारिश कर सकता है। लेकिन यह डर केवल तभी काम करता है, जब सूचना का संबंध निचले स्तर से हो। जब सूचना उच्च सरकारी स्तर से संबंधित होती है तो अक्सर यह डर अप्रभावी हो जाता है। अत: आयोगों के निर्णयों को लागू करना हमेशा से ही समस्या रही है, जो वर्तमान स्थिति में अधिक चिंताजनक हो गई है।
आरटीआई कानून में जो हाल में संशोधन प्रस्तावित किये गये हैं, वे आयोगों के हाथ मजबूत करने की बजाय उन्हें और अधिक कमजोर कर देंगे। सरकार का प्रस्ताव है कि केन्द्रीय सूचना आयुक्तों को चुनाव आयुक्तों के समतुल्य न रहने दिया जाये क्योंकि दोनों के अलग-अलग शासनादेश हैं। यह धारणा तर्क रहित है कि स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराना लोकतंत्र में पारदर्शिता से अधिक महत्वपूर्ण है। सरकार ने यह भी प्रस्ताव रखा है कि सूचना आयुक्तों की वर्तमान पांच वर्ष की निश्चित कार्यावधि को समाप्त कर दिया जाये और उसके स्थान पर सरकार द्वारा निर्धारित कार्यावधि हो। इससे आयुक्तों का कार्यकाल सरकारी मेहरबानी के रहमो-करम पर रहेगा, जिससे सूचना आयोगों की स्वतंत्रता व प्राधिकरण प्रभावित होंगे।
आरटीआई कानून ने निजता व पारदर्शिता के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया कि उस व्यक्तिगत सूचना को उजागर नहीं किया जायेगा, जिसका किसी सार्वजनिक गतिविधि से संबंध नहीं है या जो अनावश्यक रूप से प्राइवेसी में हस्तक्षेप करती हो। लेकिन जस्टिस श्रीकृष्णा समिति ने एक संशोधन प्रस्ताव रखा है जो ‘नुकसान’ की परिभाषा का विस्तार करता है, उस व्यक्तिगत जानकारी की भी गोपनीयता बनाता है जो स्पष्टत: किसी सार्वजनिक गतिविधि से जुड़ी हुई हो। केन्द्रीय व राज्य सूचना आयोगों में अधिकतम 11 सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान है। लेकिन इन आयोगों में बहुत कम सदस्यों से काम चलाया जा रहा है; क्योंकि सरकार आयुक्त नियुक्त करने में आनाकानी करती है या इस तरफ  ध्यान ही नहीं देती। मसलन, केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) में फिलहाल सात सदस्य हैं और अगर अतिरिक्त नियुक्तियां नहीं की गईं तो वर्ष के अंत तक मात्र तीन सदस्य ही रह जायेंगे। इससे मामलों के निपटारे में देरी होती है और हाईकोर्ट्स में भी बैकलॉग बढ़ जाता है, जहां आयोग के अनेक निर्णयों को चुनौती दी जाती है। ऐसा अक्सर उच्च व ताकतवर से संबंधित मामलों में होता है। मसलन, सीआईसी ने 2007 में इंद्रप्रस्थ गैस लि. को आरटीआई कानून के तहत लाने का आदेश दिया, जिस पर दिल्ली हाईकोर्ट ने स्टे लगा दिया, जो आज तक जारी है। आरटीआई व्यवस्था में गतिरोध का एक कारण अज़र्ियों की अधिकता भी है, अक्सर सार्वजनिक संस्थाओं के असंतुष्ट कर्मचारी बेतुके व गैर-जरूरी प्रश्न मालूम करते हैं। दुर्भाग्य से उनके प्रार्थना-पत्र भी अनेक आरटीआई एक्टिविस्टों के सवालों के साथ मौजूद रहते हैं, जिन्होंने अक्सर अपनी जान को खतरे में डालकर अच्छा काम किया होता है। आरटीआई कानून की धारा 4 के तहत यह प्रावधान है कि प्रत्येक सार्वजनिक अधिकारी बहुत सारी जानकारी अपने आप ही उपलब्ध करा दे। लेकिन इस तरह सूचना का मिलना संतोषजनक नहीं रहा है। इसलिए सीआईसी को लगातार बैंकिंग सेक्टर के व्यवस्थापकों को निर्देश देने पड़े कि वह बैंकों की अनियमितताओं की जानकारी सार्वजनिक करें ताकि जनता विभिन्न बैंकों से अपनी डीलिंग पूर्ण जानकारी की रोशनी में कर सके।
 आरटीआई कानून के 13 वर्ष के वजूद ने हमें पर्याप्त अनुभव दे दिया है कि इसे अधिक प्रभावी बनाने के लिए सार्वजनिक बहस हो। लेकिन अगर ऊपर दिए गये मुद्दे संबोधित नहीं किये जायेंगे तो यह कानून अपनी चमक खो बैठेगा, विशेषकर उच्चस्तरीय प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के संदर्भ में।