सीबीआई संकट क्या नरेन्द्र मोदी के लिए वाटरलू सिद्ध होगा ?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। वे लगातार बढ़ती जा रही हैं। ताजा समस्या सीबीआई के संकट से जुड़ी हुई है। इसके कारण मोदी प्रशासन की संकट मोचक क्षमता पर तो सवाल उठा ही है, इसके राजनीतिक निहितार्थ भाजपा के लिए और भी मारक हैं। राहुल गांधी को इस संकट के रूप में अपना राफेल मुद्दा और भी जोर शोर से उठाने का मौका मिला है और सरकार इस मसले पर जितना मुंह खोलती है, वह उतना ही संदिग्ध होती जा रही है। उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि राफेल की कीमत 3 गुना क्यों बढ़ गई। सच तो यह है कि इसकी कीमत के बारे में किसी प्रकार की जानकारी भी सरकार लोगों के साथ शेयर नहीं करना चाहती। सरकार के पास इस सवाल का जवाब भी नहीं है कि उसने सरकारी क्षेत्र के हिन्दुस्तान एयरोनॉक्सि लिमिटेड से ऑफसेट ठेका छीनकर अनिल अंबानी की अनुभवहीन कंपनी के पास क्यों जाने दिया? सीबीआई का यह संकट दो अधिकारियों के बीच वर्चस्व का नतीजा है। वैसे संगठन मेें वर्चस्व तो उसी का होता है, जो उसका प्रमुख होता है और निदेशक होने के नाते आलोक वर्मा ही इस संगठन के प्रमुख थे। इसलिए वर्चस्व तो उन्हीं का होना चाहिए था, पर प्रधानमंत्री की नजदीकी के कारण राकेश अस्थाना उनके समानान्तर एक सत्ता बन गए थे और पूरे संकट का मूल कारण भी यही है। कहते हैं कि आलोक वर्मा ने अस्थाना के समानान्तर वर्चस्व को स्वीकार भी कर लिया था, लेकिन अमित शाह के एक पसंदीदा अफसर ए.के. शर्मा के सीबीआई में अतिरिक्त महानिदेशक के रूप में आने के बाद आलोक वर्मा अपने वर्चस्व को मिल रही चुनौती के खिलाफ  सक्रिय हो गए थे। इस तरह से संगठन में दो गुट बन गए और मामला बिगड़ता चला गया। एक दूसरे के ऊपर भ्रष्टाचार के लगाए आरोपों के मामले मेें वर्मा और अस्थाना में से कौन सही हैं और कौन गलत, इसके बारे में इस समय कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन संगठन की गुटबाजी रोकने में केन्द्र या सीवीसी ( केन्द्रीय निगरानी आयोग) की विफलता स्वत: स्पष्ट है। दरअसल कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सितारे गर्दिश में चल रहे हैं। उस चुनाव के बाद जिस तरह से बहुमत को नकार कर अल्पमत येदुरप्पा सरकार का गठन हुआ, वह बहुत ही आपत्तिजनक था और उसके बाद यह लगने लगा था कि चुनावों के नतीजों को भी अर्थहीन बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी तत्पर है। येदुरप्पा की सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण खरीद-फरोख्त से अपना अस्तित्व बचाने की घोषित मंशा में विफल हो गई, लेकिन पूरे घटनाक्रम ने लोकतंत्र पर मंडराते खतरे की घंटी बजा दी थी। उसके साथ ही कुछ ऐसे संघ विरोधी लोग जो बेहतरी की उम्मीद में नरेन्द्र मोदी के समर्थक बने हुए थे, वे एकाएक मोदी के खिलाफ  हो गए। गुजरात और कर्नाटक चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा की गई गलतबयानियों ने भी उनकी छवि को धूमिल करने का काम किया और उनका समर्थन सिर्फ  संघ और भाजपा के दायरे तक सिमटना शुरू हो गया। कर्नाटक चुनाव के बाद एसएसी-एसटी एक्ट पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मोदी की एक और परीक्षा ली, जिसमें वे विफल हो गए। उन्होंने एक गलत राजनीतिक कदम उठाते हुए एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किए गए संशोधन को निरस्त कर दिया। कोर्ट का फैसला गलत नहीं था, क्योंकि इस एक्ट का भारी पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है। इस एक्ट के खिलाफ  सवर्ण ही नहीं, बल्कि ओबीसी समुदायों के लोग भी हैं। अल्पसंख्यक समुदाय भी इसे समाप्त देखना चाहता है, लेकिन कुछ दलित नेताओं के दबाव में प्रधानमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करते हुए एक और कानूनी संशोधन कर डाला। 
उसका असर यह हुआ कि मोदी के सवर्ण समर्थक एकाएक नाराज हो गए और वे मोदी विरोधी हो गए। सोशल मीडिया में वे नोटा के पक्ष में अभियान चलाने लगे। वे भाजपा को वोट न देने की कसमें खाने लगे। दलित वोट पाने के लिए नरेन्द्र मोदी ने अपने सबसे प्रबल समर्थक आधार सवर्ण को ही नाराज कर दिया और नये-नये बने ओबीसी आधार को भी नाखुश कर दिया, क्योंकि वे सब इस एक्ट के दुरुपयोग के कारण अपने आपको पीड़ित पा रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि एसएसी-एसटी एक्ट ने नरेन्द्र मोदी और भाजपा को भारी नुकसान पहुंचा दिया है। दलित आधार में उसके घुसने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं, क्योंकि मोदी सरकार से उनकी शिकायत बढ़ती ही जा रही है। एसएसी-एसटी एक्ट के बाद सोशल मीडिया पर मोदी भक्तों की संख्या घटकर आधी हो गई है। उसके कारण मोदी विरोधी आज सोशल मीडिया में मोदी समर्थकों पर हावी हो गए हैं। इस बीच राफेल नरेन्द्र मोदी के लिए एक स्थायी चुनौती बना हुआ है। यह आश्चर्य की बात है कि गैर कांग्रेसी विपक्ष एक मसले पर खामोश क्यों है। शायद वह इसलिए चुप है, क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ  अभियान चलाने की उसमें क्षमता नहीं, क्योंकि वह खुद दूध का धुला हुआ नहीं है। लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस इस मसले को छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं हैं और सीबीआई का ताजा संकट उसे एक और मौका दे रहा है कि वह इस मसले को और भी हवा दे। उधर सभी एजेंडे को कांग्रेस की ओर मोड़ने की रणनीति में अब भाजपा अपने आपको घिरी पा रही है। उसकी रणनीति कांग्रेस के प्रति आक्रामक रुख बनाकर पुराने जमाने को ही मुद्दा बनाए रखना था, लेकिन जब सवाल आपके ऊपर टकटकी लगाए हुए हो, तो पहले आपको उन सवालों से निबटना होता है और उन्हें छोड़कर आपने अपनी तरफ  से सवाल दागने शुरू कर दिए, तो फिर आप खुद प्रहसन का पात्र बन जाते हैं। यही नरेन्द्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी के साथ हो रहा है। और इसके साथ ही यह सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या सीबीआई का वर्तमान संकट नरेन्द्र मोदी के लिए वाटरलू साबित होगा?

(संवाद)