गांधी की प्रासंगिकता

गांधी की जन्म सार्ध-शती (जन्म से 150 साल, 1869-2018) शुरू हो चुकी है। आकाशवाणी में ‘वार्तायें, पत्रिकाओं के मुख्यत: से गांधी केन्द्रित बहसें आने लगी हैं। बड़ा सवाल यह है कि जब हमने मुर्तियों में, अक्तूबर के एक दिन (2 दिन) गांधी को याद करने का सिलसिला टूटने नहीं दिया तो प्रासंगिकता का सवाल कैसा और क्यों? गांधी की मूर्ति चौराहे में लगा देना, या हर साल 2 अक्तूबर को फूल माला अर्पित कर देना क्या गांधी की विचारधारा से जुड़ने का माध्यम है, यह तो एक रूढ़ि है, परम्परा का निर्वाह मात्र है, नहीं क्या?’1893 में जब गांधी दक्षिण अफ्रीका गये थे तब उनकी उम्र 23 साल थी। ब्रिटिश ढांचे में वकालत सीखी थी। ज़हन में ज़रूर वही शिक्षा रही होगी। दक्षिण अफ्रीका में गांधी का लम्बा समय गुज़रा। गिरिराज किशोर का उपन्यास, ‘पहला गिरिमिटिया’ गांधी पर ही केन्द्रित है। उसकी स्थापना है कि मोहनदास उतना ही सामान्य व्यक्ति है, जितना कोई भी हो सकता है। वह न चोरी का जूता पहनकर पैदा हुआ था न सोने का मुकुट। पत्नी के जेवर बेच कर बार एंट लॉ करने लंदन गया था। पिता मर चुके थे। चाचा ने बहाना बना कर अंगूठा दिखा दिया। बड़े भाई की सीमित सामर्थ्य थी। जब बेरिस्टर बन कर लौटे तो बेरोज़गारी के मारे रोजी-रोटी कमाने एक-एक साल के गिरमिट (एग्रीमैंट) पर दक्षिण अफ्रीका के लिए कूच करना पड़ा था। एक बार पीटर मैरिटलवर्ग स्टेशन पर प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर यात्रा करते हुए उन्हें एक गोरे ने आदेश दिया, तुम पांच मिनट के अंदर डिब्बा खाली कर दो वरना धक्के मार कर निकलवाना पड़ेगा। इस घटना का उनके मन पर गहरा असर पड़ा। गांधी को आज कई अवसरों पर संदेह की नज़र से देखा जाता है। उनकी विचारधारा कार्यशैली का मज़ाक उड़ाने वाले लोग न भारत में कम हैं न विदेश में। उनके सत्याग्रह की सत्यनिष्ठा को भी हल्के से लिया गया। परन्तु रोमां शैला ने कहा था- शताब्दियों में कोई ऐसा महापुरुष आता है। कुछ के लिए तो गांधी मानो ईसा की वापसी थी। कई दूसरों के लिए स्वतंत्र बौद्धिक चिंतक थे। वे जैसे हमारी मानव सभ्यता के विभ्रमों और क्रूरताओं को खारिज करने वाले रूसी और टालस्टाय के अवतार थे। उन्होंने इन्सानियत और सादगीपूर्ण जीवन का संदेश दिया था।
‘हिन्द स्वराज’ गांधी रचित महत्त्वपूर्ण किताब है। किलोडनन कैसल (पानी का जहाज) पर लंदन से अफ्रीका की यात्रा में इसकी रचना हुई। 10 मार्च, 1910 को ‘हिन्द स्वराज’ बम्बई पहुंचा। इसके साथ प्लेटो की डिफैंस ऑफ सांक्रेटीज, रस्किन के अनटू दिस लास्ट, कमाल पासा के भाषण का अनुवाद 24 मार्च, 1910 को तीनों किताबों को ‘हिन्द स्वराज’ के साथ बम्बई प्रैसीडैंसी सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिखा गया। सरकार द्वारा ‘हिन्द स्वराज’ का पठन-पाठन अपराध घोषित हो गया ‘हिन्द स्वराज’ सारे पाखंड को बेनकाब करती है। वकीलों और डाक्टरों तक को भी।  कुमार प्रशांत के माध्यम से हम धीरेन मजूमदार के उस कथन तक पहुंचते हैं कि गांधी के नेतृत्व में देश के असंख्य लोगों के त्याग-बलिदान की ताकत जुड़ी। तब कहीं जाकर हमारी गाड़ी लंदन से निकल सकी और दिल्ली पहुंची, लेकिन दिल्ली पहुंच कर उसका इंजन फेल हो गया। वह तबसे वहीं अटकी है, हमारे देश के लाखों गांवों, कस्बों, शहरों में उसकी खोज कर रहे हैं। आज के उपभोक्तावादी, बाज़ारवादी, धर्म के पाखंड के दिनों में गांधी की प्रासंगिकता कहीं ज्यादा है क्योंकि एक तो कुरीतियों के विरुद्ध उनकी लड़ाई निस्तर थी, दूसरे उनमें सत्य के लिए जोखिम उठाने का जज्बा था। आज भी गांधी के सकारात्मक विचारों का अनुसरण कर देश का मार्ग सुंदर बनाया जा सकता है।