देश का आर्थिक विकास और बालू की भीत
मोदी की शासन पारी में छ: मास रह गये हैं। अगले वर्ष के पूर्वाद्ध में होने वाले आम चुनाव में एक और जीत के लिए उन्हें प्रस्तुत होना है। निश्चय ही ये साढ़े चार साल मोदी सरकार की घोषणाओं और दावों के वर्ष रहे हैं। घोषणाओं का सिलसिला तो अब समाप्त हो जाएगा। परन्तु नि:संदेह दावे चलते रहेंगे, क्योंकि इन्हीं के बल पर तो उन्हें अपना अगला चुनाव जीतना है। मोदी शासन का पहला दावा था, अपने काल में देश का आर्थिक रूपांतरण अथवा कायाकल्प कर देना। इसके लिए उन्होंने देश को एक नया भारत अथवा फिर से सोने की चिड़िया बना देने का दावा किया था। साढ़े चार वर्ष बीत गये देश की अर्थ-व्यवस्था रूपांतरण तो क्या उसकी राह पर भी नहीं चल सकी। मोदी देश को काले धन के अभिशाप से मुक्त करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नोटबंदी जैसा सख्त और आकस्मिक कदम उठाया। इसे आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक का नाम दिया। लेकिन यह प्रहार नाकामयाब रहा। काले धन के धनपति अपने प्रहारकों से अधिक चतुर निकले। उन्होंने अपना लगभग पूरा काला धन बैंकों में जमा करवा कर सफेद कर लिया। अब जांच की एक लम्बी प्रक्रिया चल रही है कि कितना रूपया काला और उनके धनपतियों के कृत्य कितने काले हैं? यह इस बात से भी ज़ाहिर है कि नोटबंदी के वर्ष जितने लोगों ने अपने आय कर रिटर्न दाखिल किए थे, अब उनकी संख्या में कमी आ गई है। सम्भवत: इन पर अर्थ-शास्त्र की घटती हुई सीमांत उपयोगिता का नियम लागू होने लगा है। यही हाल मोदी सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना ‘एक देश एक कर’ अर्थात् जी.एस.टी. का भी हुआ। निरक्षर भट्टा चार्यों के इस देश में जहां ‘चतुर सुजान’ ऐसी बंदिशों में से कोई न कोई चोर दरवाज़ा निकालने में माहिर हो जाते हैं। यही काम जी.एस.टी. लागू करने, और माल परिवहन पर ई. बिल प्रणाली लागू करने पर हुआ। यहां भी बोगस बिलों का धंधा ज़ोर-शोर से चलने लगा। सरकार जी.एस.टी. बिलों की जटिल प्रतिक्रिया के सरलीकरण और इनकी दरों में वस्तुओं की अदल-बदल में लगी रही। इधर करदाताओं ने इन करों से बचने के रास्ते भी निकाल लिये। जिस जी.एस.टी. से यह उम्मीद रखी गई थी कि वह वस्तुओं मंडियों का क्षितिज स्थानीय से बढ़ा कर राष्ट्रीय कर देगा। विदेशी निवेशकों को भी प्रोत्साहन मिलेगा कि भारत की कर प्रणाली सहज हो गई, अब नौकरशाही की भूल-भलैया से निजात मिल जाएगी। ऐसी हुआ नहीं। सरकार ने कार्य सेवाओं के त्वरित भुगतान के लिए एकल खिड़की योजना बनाई थी, वह भी सफल न हुई। लाल फीताशाही उसी तरह दनदनाती रही, और विदेशी निवेशक उसकी तरह मोदी साहिब के वायदों के साकार होने का इंतजार करते रहे, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘सभी बोसीदा कानून खत्म हटा दिए जाएंगे।’ लेकिन बतकही से आगे ऐसा कोई भी वायदा पूरा हुआ नहीं। मौखिक समझौते के बावजूद विदेशी निवेश अपेक्षा के अनुसार भारत में आया नहीं। स्वदेशी निवेश प्रोत्साहित नहीं हुआ, और वस्तु मंडियां विस्तृत न हो सकीं। परिणामत: जी.एस.टी. का कर राजस्व उम्मीद के अनुसार बढ़ा नहीं। राज्यों को शिकायत रही कि केन्द्र ने आज्ञानुरूप उन्हें केंद्रीय कर पूल में से हिस्सा नहीं दिया। विशेष रूप से उत्पादक राज्यों के मुकाबले पंजाब जैसे उपभोक्ता राज्यों को तो राजस्व हानि ही हुई। उनके खज़ाने खाली हो गये। घोषणाओं के अनुसार वे अपने वायदे पूरे न कर सके। उन्हें अपने आवश्यक भुगतानों में भी कठिनाई आ रही है। उनके भुगतान समय पर नहीं हो रहे। जनता के संबंधित वर्गों में रोष पनप रहा है। इसी का नतीजा है कि आज हरियाणा और पंजाब का कर्मचारी वर्ग आंदोलन की राह पर है। किसान संगठनों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपने आंदोलन और आक्रोश का बिगुल फूंक दिया है। शहरी और उद्यमी क्षेत्र में मंदी का प्रसार हुआ है। नौजवानों को रोज़गार नहीं मिलता। सरकार दावा करती है कि 2018 की पहली तिमाही में नौ तिमाहियों का रिकार्ड तोड़ कर 8.2 प्रतिशत का आशातीत विकास हुआ। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार यह विकास नौकरी रहित विकास था। इस पारी में मोदी सरकार इस समस्या का समाधान लघु और कुटीर उद्योगों के विकास अथवा सहकारी आंदोलन से करती हुई नज़र आई। चाहे अपने ‘मन की बात’ प्रसारणों में अथवा मंचीय भाषणों में सरदार पटेल का गुणगान करते हुए इनके महत्व को मोदी ने बहुत बार रेखांकित किया। एक और बड़ी समस्या पैट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती हुई कीमतों ने भी पैदा की। ‘एक देश एक कर’ की पैरवी करने वाली सरकार इन पदार्थों को जी.एस.टी. कर योजना के अधीन समेटने के लिए तैयार न हो सकी। केन्द्र इस पर अपनी अलग एक्साइज दरें लगाता है, और राज्य अपने वैट और स्थानीय कर वैट ‘अलग’ आर्थिक इतिहास ने बताया कि मोदी शासन के पहले तीन वर्षों में जब अंतर्राष्ट्रीय मंडियों में पैट्रोलियम पदार्थों की कीमतें लगातार कम हो रही थी, तब सरकार ने अपने करों को तेरह बार बढ़ाया था। लेकिन अब जब पिछले डेढ़ वर्ष से पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं, तो केन्द्र और राज्य सरकारें अपने-अपने कर घटाने के लिए तैयार नहीं, न ही इन पदार्थों को जी.एस.टी. के अधीन लाना चाहती है, क्योंकि इससे चालू खाते का घाटा बढ़ता है, और राज्यों का खज़ाना खाली होता है। इसलिए इस समय देश के आम आदमी के लिए सबसे बड़ी परेशानी पैट्रोलियम उत्पादों की कीमते हैं और उसे देश का तमाम आर्थिक बालू की भीत पर खड़ा दिखाई देता है।