नेता इतना झूठ क्यों और कैसे बोल लेते हैं ?

न्यता है कि यदि एक बार बोले गये झूठ का प्रतिकार तुरन्त न किया जाए तो वह चौबीस घण्टे बाद सत्य समझा जाने लगता है। इसी तरह यह कि ‘झूठ के पांव नहीं होते’ मतलब यह कि झूठ पैदल नहीं सुपर सोनिक जेट की गति से उड़कर सर्वत्र पहुंच जाता है। सामान्यत: लोग झूठ बोलने से परहेज करते हैं लेकिन इनमें राजनीतिक बिरादरी कतई नहीं आती और यह परम्परा नेताओं के परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी बदस्तूर चलती रहती है। झूठ बोलने में पारंगत होना बचपन से ही कुदरती तौर पर सीख लिया जाता है और फिर वह जीवन भर चलता रहता है। अगर झूठ पकड़ा गया तो ऐसे-ऐसे बहाने सुनने को मिलते हैं कि सामान्य व्यक्ति आश्चर्य से आंखें फाड़े यही कहता है, ‘अच्छा ऐसा भी होता है!’
चुनावों का मौसम हो तो यह जानना नामुमकिन है कि बोले गये झूठ की कितनी परतें हैं और वह कौन सी परत हटाकर  इस प्रकार बोला गया है कि उस पर सहजता से यकीन किया जा सके। अपने स्वार्थ के लिए दूसरे के सत्य की चीरफाड़ कर उसे झूठ में बदल देने में भी हमारे राजनीतिज्ञ माहिर होते हैं। एक उदाहरण है; कालेधन को लेकर भाजपा के नेताओं ने कहा कि विदेशों में जमा कालाधन यदि देश में आ जाए तो वह इतना है कि प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपये आ सकते हैं। अब यह जो स्विस बैकों में जमा धन है, उसे वापिस लाने में किसी भी दल या सरकार की रुचि नहीं है परन्तु हरेक राजनीतिज्ञ यह कहकर भरमाता रहता है कि सत्ता मिलते ही वह सबसे पहले विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वापिस लाएगा। यह झूठ बारम्बर बोला जाता है कि मोदी जी ने 15 लाख रुपये हरेक के खाते में जमा करने की बात कही थी, इसलिए लोग यह पूछते रहते हैं कि ‘15 लाख रुपये हमारे खाते में अभी तक नहीं आए।’आजकल एक और झूठ राफेल डील को लेकर बराबर बोला जा रहा है कि इसमें अनिल अम्बानी की जेब में 30 हजार करोड़ रूपये डाल दिये गये। जो नेता यह झूठ बोलते हैं, उन्हें बाखूबी जानकारी है कि इस सौदे की शुरुआत यूपीए के शासन में हुई थी और उस समय हवाई जहाज बनाने वाली कम्पनी ने मुकेश अम्बानी की कम्पनी को आफसेट पार्टनर के रूप में चुना था। किन्हीं कारणों से यह समझौता नहीं हो सका तो कम्पनी ने अनिल अम्बानी की कम्पनी को सही पाया और उसके साथ डील करने की शुरुआत कर दी। इसमें सरकार कहीं नहीं आती सिवाय इसके कि यह समझौता दो सरकारों के बीच है, बिना किसी बिचौलिए के और भारतीय कम्पनी को चुनने में भारत सरकार नहीं, बल्कि फ्रैंच कम्पनी स्वतंत्र है। भारतीय कम्पनी की पूंजी 70 करोड़ है जिसमें 49 प्रतिशत  फ्रैंच कम्पनी और 51 प्रतिशत भारतीय कम्पनी की हिस्सेदारी है जो बढ़कर 850 करोड़ तक इसी अनुपात में जाएगी। 
इसी तरह यह झूठ कि प्रधानमंत्री मोदी ने देश के 15-20 उद्योगपतियों का लाखों करोड़ रुपया माफ  कर दिया और लाखों हैक्टेयर जमीन उन्हें दे दी जबकि कभी न तो उन उद्योगपतियों के नाम बताए जाते हैं और न ही कज़र् माफी या जमीन देने के सबूत दिए जाते हैं। जनता इसे सच मान लेती है, क्योंकि सच जानने का पैमाना उसे कभी दिया नहीं गया। अब यह कितना बड़ा झूठ है कि पिछले 60-70 वर्ष में कोई विकास ही नहीं हुआ जब कि आज जो पार्टी अपने बलबूते पर सरकार बना सकी है वह इसलिए कि भारत में लोकतंत्र है और धीमी गति से सही, विकास लगभग हर क्षेत्र में हुआ है।बेसिर पैर के बोले गये झूठ की एक और मिसाल दिल्ली की सत्तारूढ़ सरकार के मुखिया का यह दावा करना था कि भारतीय सेना द्वारा की गयी सर्जीकल स्ट्राइक फर्जी थी। अगर असली थी तो उसके सुबूत पेश किये जाएं। हालांकि यह झूठ ज्यादा देर टिक नहीं पाया, क्योंकि उसका प्रतिकार तुरन्त कर दिया गया था।सत्यमेव जयते बनाम झूठ जयते राजनीतिज्ञों की राह पर या उनका अनुसरण करते हुए सरकारी अधिकारी भी झूठ का सहारा लेकर अपना और अपने आकाओं का उल्लू सीधा करते रहते हैं। उन पर ‘सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का’ पूरी तरह लागू होता है। असल में जहां एक ओर यह सच है कि सत्य अक्सर कड़ुवा होता है वहां यह भी हकीकत है कि ज्यादातर लोग सच न तो सुनना चाहते हैं और न ही समझना चाहते हैं। इसी मनोवृत्ति का लाभ हमारे नेता और अधिकारी उठाते हैं। इसी के साथ यह भी एक सच्चाई है कि अधिसंख्य लोगों को बहुत देर तक झूठ बोलकर मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। उसका पर्दाफाश होते ही सत्य उसकी जगह ले लेता है और तब कहा जाना है ‘सत्यमेव जयते‘। परन्तु तब तक अमूमन बहुत देर हो चुकी होती है और नुकसान इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी भरपाई करना संभव नहीं होता। सत्य के मुकाबले झूठ बोलकर लोगों की निष्ठा अपने फायदे के लिए करना बहुत आसान है। झूठ से न केवल जनता, बल्कि अपने अधीन काम करने वालों की निष्ठा पर भी कब्ज़ा जमाया जा सकता है। विडम्बना यह है कि यह कतई जरूरी नहीं है कि झूठ जिस दायरे में प्रतिष्ठित किया जा चुका है, उसके बाहर भी उसका बोलबाला कायम रहे। जो झूठ फैलाता है, वह उसे सत्य मानने वालों को कभी अपने दायरे से बाहर निकलने ही नहीं देता, क्योंकि वह जानता है कि झूठ के बेनकाब होते ही उस पर मुसीबतों के पहाड़ इस तरह टूटेंगे कि उसका नामो-निशान भी नहीं रहेगा। इसका इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा जब ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया गया था। लोगों ने इस झूठ को सत्य मान लिया जब कि आज भी 40 प्रतिशत आबादी गरीबी की मार झेल रही है। इसी तरह ‘शाईनिंग इण्डिया’ के झूठ ने अच्छी खासी अटल बिहारी सरकार को धराशायी कर दिया। दूर क्यों जाएं मनमोहन-सोनिया गांधी की सरकार गिरने का भी कारण यही था कि दस वर्ष में झूठ और भ्रष्टाचार की बेल इतनी बढ़ चुकी थी कि भाजपा की जरा सी कोशिश से वह कट कर गहराई में गिर गयी। आज भी भ्रष्टाचार समाप्त होने का झूठ बोला जाता है लेकिन यह खत्म तो क्या होता, दिनों दिन बढ़ रहा है, क्योंकि चुनाव कभी भी ईमानदारी की कमाई से नहीं लड़े जा सकते और न ही रिश्वतखोरी का सहारा लिए बिना कोई व्यवसायी कामयाब हो सकता है। यहां तक कि नौकरी पाने के लिए भी झूठ और बेईमानी का सहारा लिए बिना सफलता कम ही हासिल हो पाती है। झूठ के कामयाब होने का सबसे बड़ा कारण है कि लोगों को अशिक्षित रखकर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में ही इस तरह हमारे नेता उलझाए रखते हैं कि उसे कभी झूठ को जांचने का वक्त ही नहीं मिलता। यदि कोई नेता यह दावा करे कि वह कभी झूठ नहीं बोलता तो समझ लीजिए कि उसके जीवन में इसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, इसलिए ऐसे व्यक्ति पर भरोसा करना हमेशा खतरनाक सिद्ध होता है। ये लोग मन लुभावन बातें करके दिल जीतने और दूसरे के मन पर काबू करने में माहिर होते हैं इसलिए इनसे हमेशा बचकर रहना ही श्रेयस्कर है।  बचपन की सगाई राजनीति से निकलकर जब झूठ सामाजिक ताने-बाने को बिखेरने में लग जाता है तब उसकी व्यापकता का अंदाज़ा इस छोटी-सी घटना से लगाया जा सकता है। एक खबर ने जो राजस्थान से आई थी उसमें यह था कि एक पिता ने अपनी बेटी की सगाई उसकी तीन वर्ष की उम्र में कर दी थी। अब वह बेटी बड़ी होकर अपना कैरीयर बनाने में जुट गयी और चार्टर्ड अकाऊंटैंट बन गयी और जिससे उसकी सगाई हुई थी, वह कुछ खास नहीं कर पाया लेकिन उसके माँ बाप ने पंचायत में दावा कर दिया कि उनके लड़के की शादी उस कन्या से कराई जाए जिससे उसकी सगाई हुई थी। पंचायत की यह हठधर्मिता देखिए कि उसने इस दावे को न केवल माना, बल्कि लड़की के घरवालों पर इस शादी से इंकार करने के कारण थोड़ा बहुत नहीं बीस लाख से ज्यादा का जुर्माना भी कर दिया। यह जुर्माना भरने के बाद भी लड़की का जीना इस कदर मुश्किल कर दिया कि उसे जहर खाकर अपनी जान की बाजी लगाने को विवश होना पड़ा। यह घटना समाज के इस पहलू को क्या नहीं दर्शाती कि मानो आज भी हम उस युग में जी रहे हैं जिसमें लड़कियों को कहीं भी हाँक देने या किसी भी खूँटे से बाँध देने की मानसिकता का बोलबाला था? क्या इससे इस झूठ का पर्दाफाश नहीं होता कि हम बेटी को शान से रहने और स्वतंत्र होकर जीने देने का झूठ बोलते रहते हैं? बेटी बचाने उसे पढ़ाने-लिखाने तथा अपने मन के अनुसार जीने देने की बातें केवल एक ढोंग की तरह करते हैं। विडम्बना यह है कि इस घटना में पुलिस और प्रशासन ने भी आँखें बंद कर लीं और पंचायत तथा आरोपियों का ही साथ दिया न कि उस लड़की और उसके परिवार का। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि हमारे देश में सामाजिक कानून केवल अलमारियों में बंद रखने के लिए हैं क्योंकि उन पर अमल करने की जरूरत कभी समझी ही नहीं गयी जबकि उन पर  सख्ती  से अमल होना चाहिये था। इस मामले में भी यदि लड़की के परिवार वालों के बजाय लड़के और उसके घरवालों पर जुर्माना होता या पुलिस लड़की को तंग करने के अपराध में उन्हें जेल भेजती और अगर पंचायत भी इसमें रुकावट डालती तो उसके सदस्यों पर भी कानून का शिकंजा कस दिया जाता तो एक काबिल लड़की का जीवन मौत के द्वार पर न खड़ा होता।  यह घटना चाहे एक गाँव की हो लेकिन इसके लिए शहरों की चुप्पी अचम्भे में डालती है और कहीं कोई हलचल नहीं होती। झूठ को सच मानने की नियति यही होती है, जरा सोचिए?