क्या अमन के रास्ते में अड़चनें पैदा कर रही हैं अरुंधती रॉय ?

बुकर पुरस्कार प्राप्त करने वाली महिला उपन्यासकार अरुंधती रॉय जो वर्ष 1977 में अपने उपन्यास ‘द गॉड ऑफ स्माल थिंगस’ की चर्चा के साथ ही समाचार-पत्रों में अपनी जगह बना गई। यूं तो हमारे देश में तरक्की पसंद साहित्यकारों की एक लम्बी शृंखला है, जिनके बारे में यह बात तो भारतीय समाज पहले से ही भली-भांति जानता है कि वे साम्यवादी और माओवादी विचारों से प्रेरित हैं इसीलिए जब अरुंधती रॉय यह कहती हैं कि महात्मा गांधी जब अनशन रखते, तो सुपर स्टार माने जाते थे और उनके सामने जब एक झोपड़ी में रहने वाला भूख हड़ताल करे तो उसकी तरफ ध्यान देना भी लोग पसंद नहीं करते। मज़दूर, किसान, आदीवासी इत्यादि यूं कह लीजिए निर्धन्ता का ढोल पीटना ऐसे लेखकों को लोकप्रियता दिला जाता है। परन्तु इस बार हम अरुंधती रॉय की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि उन्होंने भारत की अखंडता पर जाने-अनजाने चोट करने का प्रयास किया। कश्मीर आजकल, एक सुलगती हुई समस्या है। इस पर कुछ बोलने से पूर्व हमारे लेखकों एवं अन्य बुद्धीजीवियों को ध्यान रखना चाहिए परन्तु वर्ष 2008 में जब बाबा अमरनाथ के यात्रियों के लिए एक कैंप स्थल बनाने का प्रस्ताव आया तब अरुंधती रॉय ने घाटी में जाकर आग उगलता भाषण ही नहीं दिया, बल्कि घाटी की आज़ादी के लिए हुर्रियत और देश के दुश्मनों का बुलंद आवाज़ में समर्थन किया था, जिससे अमन की ओर बढ़ता कश्मीर फिर से अराजकता की राह पर चल पड़ा। कुछ लोगों को समाचारों में रहने का शौक होता है इसलिए वह उल्टे-सीधे बयान देते ही रहते हैं। अखबारों में आने के लिए मनोहर चाट वाले का मालिक पप्पू सरदार ने सिने तारिका माधुरी दीक्षित की पूजा करके समाचार पत्रों को यह अवसर दे दिया। समाचार-पत्रों में रहने के लिए कई नेतागण भी ऐसे ही पापड़ बेलते आज भी दिखाई देते हैं। क्या बुकर पुरस्कार प्राप्त करने वाली लेखिका भी वही सोच रखती हैं? जहां तक कश्मीर का मामला है वह वर्ष 1947 से लेकर आज तक भारत के लिए सिर दर्द बना हुआ है। ऐसे में मैडम रॉय को बेमतलब कश्मीर पर अपने विचार नहीं देने चाहिए थे।अरुंधती रॉय जानती होंगी कि कश्मीर घाटी का मामला बहुत गम्भीर स्थिति में है। इस मनोवैज्ञानिक युद्ध में युवकों का आतंकवाद की ओर बढ़ने से रोकने के लिए कई कार्यक्रम बनाए जा रहे हैं। मान्यवर राज्यपाल श्री सतपाल मलिक ने एक साक्षात्कार देते हुए कहा भी कि अमन के रास्ते पर जो भी युवक चलना चाहे मेरे घर के दरवाज़े उसके लिए खुले हैं, बंदूक छोड़ वह किसी वक्त भी मेरे साथ आकर बात कर सकते हैं। अरुंधती रॉय को भी ज्ञात होगा कि कुछ लोग कश्मीर में बैठे पाकिस्तान से बातचीत करने के सुझाव देते ही रहते हैं जबकि पाकिस्तान में लोकतंत्र और उसके नेता बस दिखावे के होते हैं। पाकिस्तान भारत में आतंकवादियों की खेप भेजता ही रहता है।  पथराव करने वालों की एक बड़ी संख्या ऩफरत और लालच के प्रभाव में अमन के लिए संघर्ष करती सेना पर हमले कर रहे हैं और मैडम अरुंधती रॉय भी इन पत्थरबाज़ों की हिमायत करती हैं, आतंकवादियों का पक्ष लेती हैं। हमारा कहने का भाव है कि वह हथियार उठाने वालों की निंदा नहीं करती और न ही उन्हें इस खतरनाक देश-विरोधी रास्ते पर जाने से रोकती हैं।मैडम रॉय यह भी तो जानती होंगी कि बातचीत करने से पहले हालात को साज़गार बनाना होता है। इस पर विदेश नीति कोई बच्चों का खेल नहीं है जो टूटने के बाद आसानी से दोस्ती हो जाए, हमने जब भी बातचीत करने का प्रयास किया हमें उसके बदले में खून के आंसू रोना पड़ा। कभी कारगिल, कभी पठानकोट, कभी उड़ी हर बार भारत की कोशिश पाकिस्तान को अमन के रास्ते पर लाने से बेकार गई। देश जानता है कि भारत में कुछ ऐसी महिलाएं भी हैं जो विकास के रास्ते में अड़चन पैदा करके अपने नेतृत्व को बल देना चाहती हैं। हम यहां मेधा पाटेकर का नाम नहीं लेते। हालांकि उन्होंने भी नर्मदा आन्दोलन को बहुत हवा दी थी, परन्तु मैडम अरुंधती रॉय ने तो बढ़-चढ़ कर भाग ही नहीं लिया, अपितु लम्बे-लम्बे बयान भी अखबारों में प्रकाशित कराए जबकि यह सर्वमान्य है कि अमन और विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गरीबी हटाओ के नारे पर कांग्रेस कई वर्षों तक इस देश पर राज करती रही। साम्यवादी दल भी कांग्रेस का प्रत्यक्ष और परोक्ष साथ देते रहे। हम यह बता दें अरुंधती रॉय का जन्म 24 नवम्बर वर्ष 1961 को हुआ इसलिए इन पर चीन और पाकिस्तान से लड़ी गई जंगों के दर्द का कोई असर नहीं होगा परन्तु जब से इन्होंने होश सम्भाला है तब से लेकर यह भारतीय समाज की समस्याएं तो देख रही होंगी। इनको बुकर पुरस्कार मिले लगभग बीस वर्ष हो चुके हैं और भारत की समस्याएं जो साम्यदल और माओवाद द्वारा यदा-कदा खड़ी की जाती रहीं उनकी जानकारी भी तो होगी। नक्सली सोच के लोग आदीवासियों में विकास की हवा क्यों जाने नहीं देते? यह भी तो इनको पता होगा कश्मीर पर अल्लम-गल्लम बयान देकर यह किसी का भी भला नहीं कर रही। हमारा इनको निवेदन है कि यदि यह ऐसी समस्याओं को उठाकर अपने अगले उपन्यास के लिए कोई प्लाट तैयार कर रही हैं तो यह कोई अच्छी सोच नहीं है। देश पहले है, देश रहेगा तो विचारधारा रहेगी। आज साम्य विचारधारा विफल हो चुकी है। अभावग्रस्त, वचिंत और निर्धनता के मकड़जाल में फंसे लोगों की मुसीबतें कम करने के लिए कोई सुझाव दें तो लोग इनके कथन पर संजीदगी से ध्यान भी दें अन्यथा जैसा हाफिज़ सय्यद, सय्यद अली शाह गिलानी और वसीन मलिक और सलाहुद्दीन जैसे लोग पहले से ही वैसी बातें कर रहे हैं जैसी मैडम रॉय ने अब की। इससे कुछ हासिल नहीं होगा।