कितने नाम बदलेगी ऩफरत की सियासत ?
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा आ़िखरकार गत् 16 अक्तूबर 2018 को इलाहाबाद के नाम से प्रसिद्ध उत्तर प्रदेश के एक प्रमुख ज़िले का नाम प्रयागराज रख दिया गया। हालांकि इस क्षेत्र का नाम प्राचीन समय में प्रयाग ही बताया जाता है। हिंदू धर्म से जुड़ी मान्यताओं के अनुसार सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा ने अपना सृष्टि रचना का कार्य पूरा होने के पश्चात् इसी स्थान पर प्रथम यज्ञ किया था। इन्हीं दो शब्दों अर्थात् प्रथम के प्र व यज्ञ को याग बनाकर इन दोनों शब्दों के योग से ‘प्रयाग’ नाम रखा गया था। बाद में म़ुगल बादशाह अकबर ने इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य से प्रभावित होकर 1583 ईसवी में यहां एक नगर बसाया और पवित्र स्थली संगम के किनारे ही अपने विशाल किले का निर्ण कराया। अकबर ने ही ईश्वर की महिमा से सौंदर्यीकृत होने वाले इस शहर का नाम ‘अगाहवास’ यानी अगाह के वास का स्थान रख दिया जो आगे चलकर ‘इलावास’ पुकारा जाने लगा और अंग्रज़ों ने इसे इलाहाबाद के नाम से पुकारना शुरू कर दिया। हमारे देश के सरकारी गज़ेटियर्स में अधिकांशत: वही नाम अब तक प्रचलित हैं जोकि अंग्रेज़ों द्वारा रखे अथवा स्वीकृत किए गए हैं। परंतु देश में अनेक राजनीतिक दल खासतौर पर क्षेत्र,धर्म व जाति जैसी राजनीति करने वाले कुछ लोग जिन्हें जनसरोकारों की राजनीति से ज़्यादा दिलचस्पी लोकलुभावन राजनीति करने में रहती है वे लेग अक्सर प्रचलित नामों को बदलकर दूसरे क्षेत्रीय भाषाई नाम अथवा किसी धर्म व जाति विशेष से जुड़े महापुरुषों के नाम पर रखने की जुगत में लगे रहते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता तथा मान्यताओं का पूरा आदर किया जाना चाहिए। परन्तु यदि नाम परिवर्तन का कारण केवल धर्म अथवा किसी भाषा विशेष के विरोध पर आधारित हो तो यह कतई गैर मुनासिब है। उदाहरण के तौर पर बंबई या बोम्बे को मुंबई के नाम से परिवर्तित करना तो इसलिए समझ में आता है कि मुंबई मराठी शब्द है। मुंबई के वीटी अर्थात् विक्टोरिया टर्मिनल स्टेशन को छत्रपित शिवाजी के नाम से परिवर्तित करना भी क़ाफी हद तक मुनासिब लगता है क्योंकि अंग्रेज़ों के नाम को हटाकर भारतीय व मराठी शासक का नाम रखा गया। परंतु जिस प्रकार उत्तर प्रदेश में मायावती ने कई ज़िलों व कस्बों के नाम बदलकर दलित समाज के कई महापुरुषों के नाम पर रखे। यह कदम निश्चित रूप से दलित समाज को अपनी ओर आकर्षित करने का ही खेल था। इनमें से कई शहरों के नाम जो मायावती द्वारा बदले गए थे, उन्हें समाजवादी पार्टी की सरकार आने के बाद पुन: अपने पूर्व के नाम से ही जाना जाने लगा। बंगलौर का बेंगलूरू और मद्रास का चेन्नई व पांडेचरी का पुड्डूचेरी होना आदि सब कुछ क्षेत्रीय भाषा से जुड़े विषय हैं। परंतु भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में जिस प्रकार स्थानों के नाम बदलने का सिलसिला शुरू हुआ है, उसे देखकर स़ाफ ज़ाहिर होता है कि पार्टी के नेताओं को उर्दू व फारसी के शब्दों से ऩफरत है या फिर यह लोग धीरे-धीरे म़ुगलकालीन स्मृतियों को समाप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। यही विचारधारा कभी विश्व के सात अजूबों में से एक समझे जाने वाले ताजमहल के पीछे पड़ी दिखाई देती है। जिस एक विश्वविख्यात भवन ने पूरे आगरा ज़िले व आसपास के क़ाफी बड़े क्षेत्र को रोज़गार दिया हो वह ताजमहल इन कट्टरपंथियों को केवल इसलिए सहन नहीं होता क्योंकि इसका निर्ण म़ुगल बादशाह शाहजहां ने करवाया था। कितने आश्चर्य की बात है कि जो ताजमहल विश्व के प्रमुख पर्यटक स्थलों के मानचित्र में सर्वोपरि समझा जाता हो उसी ताजमहल को उत्तर प्रदेश के पर्यटन मानचित्र की सूची से प्रदेश की योगी सरकार ने बाहर कर दिया। इसी विचारधारा के लोग ताजमहल को समय-समय पर तेजोमहल कहकर भी पुकारते रहते हैं। इसी मानसिकता के लोगों ने कई बार ताजमहल परिसर में तोड़-फोड़ करने व अशांति फैलाने की भी कोशिश की है। योगी आदित्यानाथ अपने शहर गोरखपुर में भी प्रसिद्ध उर्दू बाज़ार का नाम बदलवा कर हिंदी बाज़ार कर चुके हैं। पिछले ही दिनों म़ुगलसराय के नाम से प्रसिद्ध देश के एक प्रमुख रेलवे स्टेशन का नाम बदल कर दीन दयाल उपाध्याय नगर रख दिया गया।आ़िखर इस प्रकार के चयनात्मक ़फैसलों का कारण क्या है? क्या उर्दू शब्द या म़ुगलकालीन समय में रखे गए नामों से ऩफरत कर शासन करना ही भाजपाई नेताओं का म़कसद है? नाम परिर्तन की इस प्रक्रिया में सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च होते हैं। ऐसे में शहरों के नाम बदलना ज़्यादा ज़रूरी है या देश की जनता के लिए रोज़गार,भुखमरी से निजात दिलाना तथा किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएं रोकना ज़्यादा ज़रूरी है? इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद शिक्षा बोर्ड, इलाहाबाद हाईकोर्ट तथा इलाहाबाद बैंक जैसे बड़े प्रतिष्ठानों व संस्थानों के नाम परिवर्तन करने में कितनी बड़ी परेशानी उठानी पड़ेगी, कभी राजनेताओं द्वारा यह सोचने की भी कोशिश की गई है? इलाहाबाद में ही जॉर्ज टाऊन ,ऐलनगंज,स्ट्रेची रोड,क्लाईव रोड,चैथम लाईन जैसे कई क्षेत्र हैं, क्या कभी इनके नाम बदलने की भी कोशिश की जाएगी? यदि प्राचीन नामों की वापसी में ही देश का स्वाभिमान बुलंद होगा तो दिल्ली को इंद्रप्रस्थ का नाम कब दिया जाएगा? हस्तिनापुर के नाम की वापसी कब होगी? लखनऊ को लखनपुर या लक्ष्मणपुर कब बनाया जाएगा? नाम परिवर्तन की राजनीति करने वाले सभी राजनीतिक दलों को यह भी सार्वजनिक रूप से बताना चाहिए कि नाम परिवर्तन की इस प्रक्रिया में कुल खर्च कितना आया और क्या राज्य की प्राथमिकताओं में जनसमस्याओं से निपटने से ज़्यादा ज़रूरी शहरों का नाम परिवर्तन है? और यदि ऐसा है तो यह लोग अपने चुनावी घोषणा-पत्र या संकल्प पत्र में इन बातों का उगेख क्यों नहीं करते?