राम मंदिर पर संघ परिवार की बेचैनी क्यों ?

राम मंदिर के निर्माण को लेकर संघ परिवार में आज जैसी बेचैनी दिख रही है, वैसी पहले कभी नहीं दिखी थी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोध्या विवाद पर शीघ्र सुनवाई से इन्कार करने के बाद तो उसमें हताशा का माहौल व्याप्त हो गया है। उसे लग रहा है कि यदि राम मंदिर अभी नहीं बना तो फिर कभी नहीं बनेगा। इसका कारण यह है कि इस समय केन्द्र में अपनी पार्टी के बूते ही बहुमत वाली मोदी सरकार है और उत्तर प्रदेश में प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा की सरकार है। राष्ट्रपति पद पर बैठा व्यक्ति भी संघ का स्वयंसेवक हैं और उपराष्ट्रपति के पद पर भी उसी परिवार का एक व्यक्ति हैं। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल तो आरएसएस के हैं ही। जाहिर है कि सत्ता पर इस तरह की प्रचंड पकड़ के बावजूद यदि राम मंदिर अयोध्या के विवादित स्थल पर नहीं बन पाता है, तो वह आगे तो और भी नहीं बन पाएगा, यदि भाजपा 2019 के बाद सत्ता में नहीं आई और यदि आई भी तो एक अल्पमत सरकार का नेतृत्व करती दिखी। संघ को पता है कि अल्पमत वाली सरकार का नेतृत्व करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी को राम मंदिर के मसले को अपने एजेंडे से वापस करना पड़ा था। यदि आगे भी ऐसी स्थिति आती है, तो अपने सहयोगियों के दबाव में भाजपा सरकार को अपने एजेंडे से एक बार फिर मंदिर निर्माण को बाहर करना पड़ सकता है।
संघ को यह भी पता है कि 2014 में भाजपा की जीत उसके कारण नहीं हुई थी। देश में एक अजीब किस्म की परिस्थिति बन गई थी, जिसमें उस समय की यूपीए सरकार की विश्वसनीयता पूरी तरह समाप्त हो गई थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ  चल रहे आंदोलन पर यूपीए और कांग्रेस सही तरीके से प्रतिक्रिया नहीं दे रही है। आंदोलन से उठे सवालों पर वह मौन थी। मनमोहन सिंह को लग रहा था कि उनका काम तो सरकार चलाना है, आंदोलन से उपजी राजनीतिक चुनौतियों का सामना कांग्रेस पार्टी करे। सोनिया गांधी को यह समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें और उन्हें लगता था कि उन चुनौतियों का सामना करने का काम मनमोहन सिंह का है। उधर राहुल गांधी सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा होते हुए भी इस तरह के बयान जारी करते थे, मानो वे विपक्ष के एक नेता हों। अपने को भ्रष्टाचार विरोधी दिखाने के लिए वे लालू यादव को बचाने वाले सरकारी अध्यादेश को तो फाड़ सकते थे, लेकिन अन्ना आंदोलन से उठे सवाल का जवाब देने में न तो उनकी कोई दिलचस्पी थी और न ही उनके पास कोई जवाब था। लिहाजा देश एक बड़े संकट के मुहाने पर दिखाई पड़ रहा था। उसे भुनाया नरेन्द्र मोदी ने। सोशल मीडिया और फिर मेनस्ट्रीम मीडिया का इस्तेमाल करके उन्होंने अपनी एक सुपरमैन छवि बनाई। भाजपा के होने के कारण आरएसएस का प्रचार तंत्र तो उनके साथ था ही, मार्केटिंग की अपनी विशेष कुशलता के कारण उन्होंने अपनी एक ऐसी छवि बना दी, जिससे यह लगने लगा कि देश की सभी समस्याओं का समाधान नरेन्द्र मोदी ही हैं। इसलिए देश की आबादी के अराजनीतिक हिस्से को लगा कि एक मसीहा आ गया है, जो हमारा उद्धार कर देगा। वह भ्रष्टाचार मिटा देगा। वह भ्रष्टाचारियों को जेल की हवा खिला देगा। चूंकि उसका अपना परिवार नहीं है, इसलिए उसके भ्रष्ट होने का तो सवाल ही नहीं, क्योंकि लोग अपने बाल बच्चों की खातिर ही भ्रष्ट होते हैं। नरेन्द्र मोदी ने गुजरात मॉडल की बात भी की। लेकिन वह कोई फैक्टर नहीं था। यदि गुजरात मॉडल की बात नहीं भी की होती, तब भी लोग उनके साथ थे। देश की आबादी का अराजनीतिक तबका ही नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप से सजग लोगों का एक बड़ा हिस्सा भी मोदी प्रेमी हो गया और उनकी बातों को अहमियत देने लगा। नितीश कुमार जैसे जो मोदी विरोधी नेता उनके खिलाफ  आवाज उठाते, जनता की नजर में वे ही संदिग्ध हो जाते। कांग्रेस और उससे जुड़ी सभी पार्टियां मोदी लहर में बह गईं और भाजपा पहली बार बहुमत पाने में सफल हुई। एनडीए के अन्य सहयोगियों के साथ उसने करीब दो तिहाई बहुमत लोकसभा में हासिल कर लिया। वह सब हुआ सिर्फ  और सिर्फ  नरेन्द्र मोदी के कारण। उनका ओबीसी होना भी भाजपा के काम आया, क्योंकि हिन्दी हृदय प्रदेश में ओबीसी नेता जातिवाद और परिवारवाद के दलदल में फंसने के कारण अलोकप्रिय हो गए थे और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में उनको एक महानायक ओबीसी दिखाई पड़ रहा था, जो देश की सभी समस्याओं का एकमात्र समाधान है। दूसरे शब्दों में कहें, तो देश की सारी बीमारियों का रामबाण नरेन्द्र मोदी को समझा गया। लेकिन साढ़े चार साल की मोदी की सरकार के बाद उनके साथ जुड़ा मिथक ध्वस्त हो चुका है। अब उनकी सुपरमैन की छवि समाप्त हो चुकी है। यह सच है कि उनके बराबर का लोकप्रिय राजनेता अभी भी कोई नहीं है, लेकिन 2014 के पहले जिस नरेन्द्र मोदी को लोग जानते थे, वह नरेन्द्र मोदी 2018 में गायब हैं। संघ को भी इसका भान है। इसलिए उसे लगता है कि शायद मोदी की सरकार बने ही नहीं। उनमें जो आशावादी हैं, उन्हें भी लगता है कि यदि मोदी की सरकार बनी भी तो वह एक अल्पमत की सरकार होगी और नितीश जैसे मंदिर विरोधियों के समर्थन से बनी सरकार होगी। और वैसी सरकार निश्चय ही मंदिर के एजेंडे को लेकर आगे नहीं बढ़ सकती। वैसी हालत में मंदिर तभी बनेगा, जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला रामलला विराजमान के पक्ष में आएगा। पर संघ तो यह सोचकर बैठा हुआ था कि यदि फैसला रामलला विराजमान के खिलाफ  भी आया, तो कानून बनाकर भूखंड हासिल किया जा सकता है और उस पर मंदिर का निर्माण किया जा सकता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में अभी मूल मसले पर सुनवाई ही शुरू नहीं हुई है। उसके लिए बेंच तक का गठन नहीं हुआ है। जाहिर है, उसका फैसला 2019 के चुनाव के पहले आने से रहा। और संघ परिवार को अहसास हो गया है कि अब नरेन्द्र मोदी अजेय नहीं रहे, इसलिए यह सोच-सोच कर परेशान हो रहा है कि यदि अभी मंदिर नहीं बना, तो कभी नहीं बनेगा। शायद उसे इस बात का भी विश्वास नहीं कि सुप्रीम कोर्ट में रामलला विराजमान की जीत होगी।