साहित्य में अरुचि क्यों ?

नि:सन्देह आधुनिक काल में प्रचुर मात्रा में साहित्य  सृजन हो रहा है । फिर क्या कारण है कि आधुनिक पीढ़ी साहित्य  से विमुख होती चली जा रही है । साहित्यकारों की अच्छी-खासी लंबी भीड़ भी है फिर यहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्यों   लोग साहित्य कम पढ़ रहे हैं । वास्तव में अब काफी मात्रा में साहित्य जन सुखाय: न होकर स्वत: सुखाय हेतु ही लिखा जा रहा है । इसका तात्पर्य यह नहीं कि आधुनिक साहित्य से समाज का भला होने वाला नहीं। भला तो अवश्यंभावी होगा। किन्तुयहां मेरे आदरणीय साहित्यकार वीर मेरी इस बात का बुरा न मनाएं वे नि:स्वार्थ को मद्देनजर साहित्य सृजन उतना नहीं कर पा रहे, जितनी मात्रा में इसकी आवश्यकता है। चूंकि उनका वास्तविक उद्देश्य समाचार-पत्रों में प्रकाशित होकर शीघ्र अतिशीघ्र मात्र अपना नाम कमाना, सुर्खियों में आना रह गया है । इसलिए वे अपने मौलिक लक्ष्य से भटकते जा रहे हैं ।   प्राचीन हिन्दी  साहित्य की देन को कदापि भुलाया नहीं जा सकता । उस समय साहित्यकार समूचे समाज की भावनाओं, समस्याओं को लेकर बेहद चिन्तनशील रहते थे । मूर्धन्य लेखक मुंशी प्रेमचंद, श्री रामधारी सिंह  दिनकर, यशपाल, अज्ञेय, जैनेन्द्र  कुमार,  सुमित्रानंदन पंत, मन्नू  भंडारी, धर्मवीर भारती, सुभद्राकुमारी चौहान, प्राचीनतम उपदेशक कविवर रहीम, कबीर, सूरदास, मीराबाई, विरह की कवयित्री श्रीमती महादेवी वर्मा, श्री तुलसीदास जी आखिर किस-किस का नाम लिया जाए।  उपरोक्त सभी साहित्यकारों ने अपने साथियों सहित तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों को अपनी कृतियों के माध्यम से दूर करने का भरसक प्रयास किया। उस समय दूरदर्शन, इंटरनेट इत्यादि नहीं  थे ।  अत: पाठक  उनकी कृतियों, कहानियों उपन्यासों एवं कविताओं को बहुत ही चाव से पढ़ते थे । पाठकों में साहित्य को पढ़ने में बेहद रुचि थी। उनके पास पर्याप्त समय होता था। यही उनके लिए मनोरंजन का साधन था।  सर्वविदित है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है तो प्राचीन साहित्य से लोग पूर्णत: जुड़े हुए थे। साहित्यकारों द्वारा लिखित साहित्य लोगों की व्यक्तिगत जीवनी होती थी। अत: लोगों के अनुभवों पर आधारित रचनाओं को अत्याधिक रुचि  से पढ़ा जाता था। अब तो बच्चे दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियों पर ही मज़ाक उड़ाते  हैं ।  आधुनिक काल में अब ऐसा क्या हो गया कि लोग साहित्य  से दूर होते चले जा रहे हैं, उन्हें  साहित्य से तनिक लगाव नहीं, इसमें रुचि नहीं। इसके बहुत से कारण हैं, आधुनिक साहित्यकार भी इसके लिए एक समान  दोषी हैं । वे बिना  सोचे लिखे जा रहे हैं । चाहे उन्हें  कोई पढ़े अथवा न  पढ़े। पुस्तकालयों का सब जगह अभाव है।  हां कहीं  अपवाद भी अवश्य हैं। आधुनिक काल में भी श्रेष्ठ, बढ़िया साहित्यकारों की कमी  नहीं है। आधुनिक साहित्य को उनकी बहुमूल्य  देन है। परंतु  यहां प्रश्न पुन: पैदा  होता है कि क्या  कारण है कि उनकी कृतियों  की भी उपेक्षा हो रही है ? कहीं कमी है तो कहीं दोष भी है ।  साहित्य पढ़ने में अरुचि का कारण इलैक्ट्रानिक मीडिया भी है। आज अश्लील, असभ्य एवं बेतुके धारावाहिकों में लोगों का क्रेज़ बढ़ रहा है । इसलिए समाज में हिंसक प्रवृति बढ़ती जा रही है । छोटे-छोटे बच्चे बाल साहित्य से विमुख होकर टी.वी. पर प्रसारित होने वाले कार्टूनों को देखते नहीं थकते । धारावाहिकों के निर्माताओं को अपनी मोटी कमाई से मतलब है।  साहित्य पढ़ने में रुचि का न होना, यह भी है कि साहित्य सृजन में कहीं न कहीं इतने निम्न स्तर की पुस्तकें धड़ाधड़ प्रकाशित हो रही हैं  कि पुस्तक में प्रकाशित रचनाएं मैगजीन स्तर की भी नहीं होतीं। वैसे भी पाठकों में प्रतिदिन साहित्य  पढ़ने की रुचि कम होती जा रही है। उनका अधिकांश समय  इंटरनेट,  टी.वी., मोबाइल इत्यादि आधुनिक टैक्नोलॉजी की भेंट चढ़ जाता है। उदीयमान लेखक अपनी पुस्तकें  प्रकाशित करवाने में धैर्य से काम लें। प्रकाशक भी पुस्तकों की कीमतें अपेक्षाकृत कम रखें । अंतत: मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि पुराना युग लौट आएगा। प्राचीन नवीन साहित्य  का सम्मिश्रण भी हो। लोग अच्छा  साहित्य पढ़ें । साहित्य ही इतिहास बनेगा, वही समाज को मार्ग दिखलाएगा । समाज की सही तस्वीर देखने हेतु सभी लोग साहित्य पढ़ने में रुचि लें ।