अयोध्या का विवाद: सुप्रीम कोर्ट ही करे फैसला


गत दिनों दिल्ली में अखिल भारतीय संत समिति द्वारा करवाए गए संत समाज के दो दिवसीय सम्मेलन में अयोध्या में राम मंदिर बनाने का मुद्दा छाया रहा। इस समारोह में जल्द से जल्द मंदिर का निर्माण करवाने की बात भी की गई। सरकार पर हर तरह से दबाव डाला गया। इसके साथ ही कुछ अन्य हिन्दू संगठन यह आवाज़ बुलंद कर रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले को लटकाये जाने के कारण सरकार को इस संबंधी अध्यादेश जारी कर देना चाहिए, ताकि बाबरी मस्जिद स्थल पर राम मंदिर का निर्माण किया जा सके। भारतीय जनता पार्टी में से भी ऐसे सुर तेज हो रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने स्पष्ट शब्दों में राम मंदिर के निर्माण की बात ऊंचे सुर में की थी। और इसके बारे में अपनी प्रतिबद्धता भी व्यक्त की थी। अब भाजपा के राज्य सभा के सदस्य राकेश सिन्हा द्वारा राम मंदिर के निर्माण संबंधी संसद में एक निजी सदस्य बिल भी लाया जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे यह सब कुछ एक सोची-समझी साज़िश के अधीन किया जा रहा है।
आगामी वर्ष लोकसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। सभी की नज़रें उस पर टिकी हुई हैं। जहां तक बहुमत का सवाल है, ऐसा नहीं लगता कि बड़े भाईचारे के सभी लोग इस मामले के ऐसे हल से सहमत हैं। आज दशकों पुरानी घटनाओं का ज़िक्र किया जा रहा है। इस लम्बे समय में पुलों के नीचे से बहुत सारा पानी बह चुका है। आज राजाशाही का ज़माना नहीं है, न ही नई भारतीय व्यवस्था में किसी तरह के तानाशाही के पनपने की उम्मीद की जा सकती है। लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार ही अस्तित्व में आती है, परन्तु सरकार के लिए भी संवैधानिक दायरे से बाहर जाना मुश्किल है। आज उच्च अदालतें भी संविधान की रक्षा के लिए सचेत हुई प्रतीत होती हैं। इसलिए चुनी हुई सरकार भीड़ तंत्र जैसी मानसिकता नहीं अपना सकती। उसको भी समूची स्थिति को देखते हुए ही कदम उठाने की ज़रूरत है। परन्तु आज इस मामले पर जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा है, उससे प्रतीत होता है कि ऐसा सरकार की सहमति से ही हो रहा है। परन्तु किसी भी सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह संवैधानिक दायरे में रहते हुए सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करे। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह मामला वर्ष-2011 में सुप्रीम कोर्ट के पास पहुंच गया था। गत दिनों सुप्रीम कोर्ट ने आगामी जनवरी के महीने में एक नया न्यायिक बैंच बनाने का फैसला किया था, जो इस सारे केस का फैसला करेगा। ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानना किसी भी सरकार के लिए आवश्यक होगा। 
जहां तक अध्यादेश का सवाल है, तो ऐसा कानून समूचे समाज में न सिर्फ बड़ी दरार ही डालेगा, अपितु इससे एक बार फिर अनेक तरह के बड़े विवाद भी उठ खड़े होंगे, जो समूचे समाज में बड़ा तनाव पैदा करेंगे। वर्ष 1992 में जब बाबरी मस्जिद के विवादास्पद ढांचे को एकत्रित की गई भीड़ द्वारा तोड़ा गया था, तो उसके बाद देश के हालात बेहद संकटमयी बन गए थे। इसका असर किसी न किसी रूप में आज तक भी देखने को मिल रहा है। इसलिए अच्छा यही होगा कि इस बेहद नाज़ुक मामले को देश की उच्च अदालत पर छोड़ दिया जाए और उसके फैसले के अनुसार ही इस बेहद पेचीदा हो चुके मामले का हल निकाला जाए।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द