दीपावली जैसी रोशनी का इंतज़ार


सरकार ने घोषित किया है कि इस बार दीपावली के महान पर्व पर रोशनी का सरकारीकरण करेंगे। इससे पूर्व रोशनी के निजीकरण के तहत बहुमंजिली इमारतों की नींव से लेकर शीर्ष तक रोशनी के उन फव्वारों की चका-चौंध रहती है, जो फुटपाथों पर गरीबों की गूदड़ के पास या किसी विपक्ष की कुटिया में जलते इकलौते दीयों की मद्धम रोशनी को शर्मसार करती है। एक कवि ने अंधेरे में डूबने से पहले कहा भी, ‘रोशनी पूंजी नहीं है जो तिजोरी में समाये/यह खिलौना भी न जिसका दाम हर ग्राहक लगाये।’ लेकिन एक  हज़ार बरस तक आज़ादी इस  देश में समतावाद की सांस भरती रही, और देश की पूंजी, धन-सम्पदा समाजवाद के नारों के साये तले धनाढ्यों की तिजोरी में समा गई।
आर्थिक प्रगति दर के चौंकाऊ आंकड़ों ने हमें बताया रोशनी तो सवा करोड़ आबादी वाले इस देश में बराबर-बराबर बांट न सकी। देश की पौनी सम्पदा दस प्रतिशत स्वर्णमंडित अट्टलिकाओं के स्वामियों की भेंट हो गई, विनिवेश के पैगाम ने अंतर्राष्ट्रीयता की ......ओर से विदेशी निवेशकों को खुल खेलने का मौका दे दिया। देश के व्यावसायिक घराने उनके चंवर धावी बने, और आंकड़ा शास्त्री मुस्कराकर बोले इस देश में अरबपतियों के बनने की गति दुनिया के सब देशों के अरबपतियों से अधिक हो गई है। दुनिया के दस सबसे धनी व्यक्तियों में से चार भारतीय मूल के हैं। इनकी मंज़िल दर मंज़िल उठती इमारतों की ऊंचाई देखो, बुज़र् ़खलीफा की ऊंचाई को मात देती है। लेकिन इन इमारतों के साये तले चंद नन्हे दीयों ने कभी जलने का प्रयास किया था, इन्हें विश्व के भुखमरी सूचकांक में भारत बढ़ते दर्जे ने मौत की सज़ा दे दी। समाजवाद के नारे उठते रहे, लेकिन देश के कलकारखानों और खेत-खलिहानों में शोभायात्रा तो पूंजीवाद की ही निकल रही है। कालेधन के भमाशा हों, व सरकारी चौराहों पर सज़दा करने वाले थैलीवानो ने हमें बताया नहीं यह पूंजीवाद नहीं, जन-उपक्रम और निजी उद्यम की भागीदार का नया रूप है। जी हां, भागीदारी तो यह है जहां सार्वजनिक उपक्रमों के नाम पर एकल खिड़कियों और सुविधा केन्द्रों में रिश्वतखोरी और मध्यजनों की दलाली के पैबंद लग रहे हैं। जनता का सेवा प्राप्त करने का अधिकार खाली आसामियों और बेकारी का भस्मासुर लील गया और निजीकरण का आक्टोपस आलिगन निस्तृत होता हुआ पूरी रोशनी भकोसकर अपनी तिजोरियों में समेट गया।
अपने कृशकाम वदन और कांपती हथेलियों से देश की अधिकांश जनता अपने श्रम के निरीह दीयों को बुझने नहीं देना चाहती, लेकिन लोकतंत्र की चिल्लाहटों, ई.वी.एम. की समझ न आने वाली मुस्कराहटों और वोटों के गट्ठरों पर जाति, धर्म और सम्प्रदाय के नीलाम घर प्रभुत्व जमा लेते हैं, अच्छा भला जीता-जागता इन्सान राजनीति की चौसर पर एक ऐसा खिलौना एक ऐसी कठपुतली बन जाता है जिसका दाम हर वह ग्राहक लगाने लगता है, जिसके ऊपर काले धन के समर्थों का वरद हस्त है।
दीपावली की अमावस की काली रात पर दीपकों की झालरें अपने वन्दनवार सजाती थीं, इस बार सरकार ने अपने खजाने में लाखों दीये जलाने का ऐलान कर दिया। लो भूख, बेकारी, कज़र् और बीमारी से तुम्हें दीये जलाने की सामर्थ्य अगर नहीं दी थी, तो तुम्हारे लिए हम हर राज्य में लाखों दीये जलाएंगे। आओ, इनकी रोशनी में स्नान करो और अच्छे दिन आ जाने की परिकल्पना का यशोगान करो।
क्या हुआ, जो इस दीवाली भी देश की एक तिहाई जनता गरीबी रेखा से नीचे जीती हर रात एक जून भूखे पेट सो गई। देखो, फुटपाथ की शय्या पर आई ऊबड़-खाबड़ नींद में भी उन्हें तुम्हारा दीया। ‘ग्रीन दीपावली’ मनाने का सपना आ रहा है। ग्रीन दीपावली जिसके पटाखों में रोशनी ज्यादा है, परन्तु उनके फटने पर कर्ण भेदी आवाज़ कम होती है। पटाखा फटे तो ज़हरीला धुआं नहीं फैलता, जल और वाष्प के कर्ण पर्यावरण प्रदूषण समेट लेते हैं, लेकिन सपनों से जगा आदमी पूछता है, ‘कहां है ग्रीन दीपावली?’ अजी अभी तो उसकी घोषणा हुई थी। परन्तु ऐसे पटाखे बने न सस्ते बिके, न उन्होंने दीपावली का रोशन शृंगार किया। क्योंकि उन्हें बनाने वाली फैक्ट्रियां हरकत में न आईं। वे अपने गोदामों में पहले से करोड़ों रुपए के बनाये पटाखे तो बेच लें। हुक्म था, कम से कम दिल्ली और एन.सी.आर. में तो ये पटाखे चला लो।
लेकिन दिल्ली तो दीपावली से पहले ही पर्यावरण प्रदूषण की घुटन से कांपती रही। दीपावली की रात आई खूब मनाई। रोशनी के फव्वारों पर तैरती पटाखों की कर्ण भेदी आवाज़े झूमी। सुबह फुटपाथ पर करवटें बदलता आदमी उठेगा, आंखों में जलन और कंठ में घुट लेकर। दीपावली बीती, ज़हरीली हवा की सौगात देकर। आओ इन कारणों की तलाश की राजनीति करें।