प्रेरक प्रसंग : ज़िम्मेदारी

एक नौका जल में विहार कर रही थी। अकस्मात आकाश में मेघ घिर आए और घनघोर वर्षा होने लगी। वायु-प्रकोप ने तूफान को भीषण कर दिया। यात्री घबराकर हाहाकार करने लगे और नाविक भी भयभीत हो गया। नाविक ने नौका को तट पर लाने के लिए जी-जान से परिश्रम करना प्रारंभ कर दिया। वह अपने मज़बूत हाथों से नाव को खेता ही रहा, जब तक कि वह बिल्कुल थक ही न गया। किंतु थकने पर भी वह नाव को कैसे छोड़ दे? वह अपने थके शरीर से भी नौका को पार करने में जुट गया। धीरे-धीरे नौका में जल भरने लगा और यात्रियों द्वारा जल को निकालने का प्रयत्न करने पर भी उसमें जल भरता ही गया। नौका धीरे-धीरे भारी होने लगी, पर नाविक साहसपूर्वक जुटा ही रहा। अंत में उसे निराशा ने घेर लिया। अभी किनारा काफी दूर था और नौका जल में डूबने लगी। नाविक ने हाथ से पतवार फेंक दी और सिर पकड़कर बैठ गया। कुछ ही क्षणों में नौका डूब गई। सभी यात्री प्राणों से हाथ धो बैठे। यमराज के दूत आए और नाविक को नरक के द्वार पर ले गए। नाविक ने पूछा-‘कृपा करके मेरा अपराध तो बताओ कि मुझे नरक की ओर क्यों घसीटा जा रहा है?’ दूतों ने उत्तर दिया-‘नाविक, तुम पर नौका के यात्रियों को डुबाने का पाप लगा है।’ नाविक चकित होकर बोला-‘यह तो कोई न्याय नहीं है। मैंने तो भरसक प्रयत्न किया कि यात्रियों की रक्षा हो सके।’ दूतों ने उत्तर दिया-‘यह ठीक है कि तुमने परिश्रम किया, किंतु तुमने अंत में नौका चलाना छोड़ दिया था। तुम्हारा कर्तव्य था कि अंतिम श्वास तक नौका को खेते रहते। नौका के यात्रियों की जिम्मेदारी तुम पर थी। तुम पर उनकी हत्या का दोष लगा है।’

— धर्मपाल डोगरा मिन्टू