ईरान से तेल आयात की अमरीकी छूट बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि

4 नवंबर से ईरान के गले पर अमरीकी प्रतिबंधों का शिकंजा कस गया। अमरीका ने अप्रैल 2018 में जबसे ईरान के साथ पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के काल में 2015 में हुई संधि को खत्म करने की घोषणा की पूरी दुनिया में तेल बाजार में अस्थिरता सहित कई प्रकार की आशंकाएं पैदा हो गईं थीं। भारत के सामने भी तेल आयात को लेकर प्रश्न खड़े हो गए थे। अपनी आवश्यकता का करीब 83 प्रतिशत तेल आयात करने वाले देश के लिए वैश्विक बाजार में तेल मूल्यों में वृद्धि के बीच अति सामान्य शर्तों पर एक बड़े आपूर्तिकर्ता का स्रोत एकाएक पूरी तरह बंद हो जाने का परिणाम कितना अनर्थकारी हो सकता था, यह बताने की आवश्यकता नहीं। जाहिर हैए अमरीका द्वारा भारत को ईरान से तेल आयात पर छ: महीने के लिए मिली छूट तत्काल भारी राहत का विषय है। भारत कुल तेल आयात का लगभग 26 प्रतिशत ईरान से ही करता है। ईरान के साथ तेल आयात का बड़ा लाभ यह है कि उसका भारी अंश रुपयों में भुगतान होता है। इसे ईरान भारत से होने वाले निर्यातों के भुगतान के रुप में वापस कर देता है। अमरीकी प्रतिबंधों की घोषणा के बाद भारत ने ईरान से बातचीत कर रुपये में भुगतान का दायरा और विस्तृत कराया था। इस तरह ईरान से तेल आयात हमारे लिए काफी लाभकारी हो गया है। अमरीकी प्रतिबंध के रहते यह भी संभव नहीं होता। अमरीकी प्रतिबंधों का अर्थ है ईरान से किसी तरह का व्यापारिक रिश्ता रखने वालों का प्रतिबंधों के घेरे में आना। भारत इसका भी जोखिम मोल नहीं ले सकता थाए क्योंकि अमरीका से हमें सबसे ज्यादा व्यापारिक लाभ हैं। भारत के लिए इन दोनों के बीच संतुलन बनाने की चुनौती थी। तत्काल इसमें यदि यह सफल है तो निश्चय ही यह नरेन्द्र मोदी सरकार की एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक सफ लता है। 
साफ  है कि यह यूं ही नहीं हुआ। हालांकि अमरीका ने भारत के साथ चीन, जापान, इटली, ग्रीस, दक्षिण कोरिया, ताईवान और तुर्की को भी प्रतिबंधों से मुक्त किया है। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि इन देशों ने अपने कूटनीतिक प्रयासों यह छूट पाई है। इसके समानांतर भारत का अपना कूटनीतिक प्रयास रहा है। इन दो धुर विरोधियों या यूं कहिए एक-दूसरे के दुश्मन बन चुके देशों के बीच संतुलन साधना तथा अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में सफ लता पाने के लिए किस स्तर की गहरी कूटनीतिक कवायद की आवश्यकता हुई होगी, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। ध्यान रखिए कि अमरीका की ओर से अप्रैल में कुछ प्रतिबंध लगाए जाने के बाद से ईरान के तेल निर्यात में 40 प्रतिशत की कमी आ चुकी है। अनेक देश अमरीकी प्रतिबंधों के भय से ईरान से तेल आयात में कटौती आरंभ कर दूसरे आपूर्तिकर्ताओं से इसकी भरपाई करने लगे थे। भारत ने ऐसा करने की जगह कूटनीतिक अभियान चलाया। ईरान को आश्वासन दिया गया कि अपने मित्र देश को वह अचानक मंझधार में नहीं छोड़ सकता। विदेश सचिव विजय गोखले की ईरान यात्रा के दौरान इन सब पर बातचीत हुई। यहां तक कि आपसी व्यापार दोगुना करने का निश्चय हुआ। यह बहुत बड़ी बात थी। एक ओर ईरान की व्यापारिक-आर्थिक नाकेबंदी के लक्ष्य वाला अमरीकी प्रतिबंध और दूसरी ओर उस बीच व्यापार बढ़ाने का निर्णय। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सभी सहयोगी देशों को स्पष्ट कर दिया था कि वे 4 नंवबर तक ईरान से तेल आयात घटाकर शून्य कर लें। अमरीका को जब भारतीय रूख का संकेत मिलने लगा कि तो उसने राजी करने की कोशिशें कीं। इसमें मान-मनौव्वल से लेकर, लालच, दबाव-धमकी सबका इस्तेमाल हुआ होगा। स्वयं ट्रम्प का बयान था कि ईरान से चार नवंबर की समयसीमा के बाद तेल आयात जारी रखने वाले देशों के बारे में अमरीका देखेगा। ट्रंप ने अपने सार्वजनिक बयानों से यह संदेश दिया कि वह भारतीय आयातों पर शुल्क लगा सकता है। इन परिस्थितियों का साहस से सामना करना, प्रतिक्रियावादी न होना तथा अमरीका के राजी करने के प्रयासों के समानांतर अपने प्रयासों से उसे राजी करना कोई आसान लक्ष्य नहीं था। वास्तव में इसके लिए दृढ़़ इच्छाशक्ति और उसके अनुरुप साहस के साथ धैर्य व संयत व्यवहार की जरुरत होती है। यह स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं है कि कठिन परिस्थितियों में ऐसी कूटनीति अपनाने की कला भारत ने दिखाई है। भारत ने अमरीका को यह विश्वास दिलाया कि ईरान से तेल आयात करना भारत की अर्थव्यवस्था के हित में है। अगर भारत की अर्थव्यवस्था कमजोर हुई तो यह अमरीकी हितों का नुकसान होगा। चीन ईरान के साथ है और वह फायदे में रहेगा तथा भारत घाटे में। दूसरे, चाबाहार बंदरगाह परियोजना भारत के लिए महत्वपूर्ण तो है ही, अमरीकी हितों की भी पूर्ति करने वाला है। कुल मिलाकर भारत ने अमरीका को यह समझाने में सफ लता हासिल की कि भारत का किसी दृष्टि से कमजोर पड़ना अमरीकी हितों को ही नुकसान पहुंचाने वाला होगा। भारत की रणनीति यही थी कि अमरीका को विश्वास में लेकर ऐसा किया जा सकता है और इसमें सफलता मिली है तो इसका श्रेय नरेन्द्र मोदी की कूटनीतिक रणनीति को मिलना चाहिए। खुले दिल से ससम्मान बातचीत का भी कूटनीति में महत्वपूर्ण स्थान है। भारत ने अमरीका को विश्वास में लेने की कोशिशें काफी पहले से आरंभ कर दी थी। 6 सितंबर को दोनों देशों की बैठकों में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराजए रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण और अमरीका के विदेश मंत्री माइक आर पोम्पियो और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस तथा अन्य अधिकारी शामिल थे। भारत ने इस बातचीत में ईरान से तेल आयात करने का विषय भी रखा। इसके बाद से लगातार कूटनीतिक चैनल पर बातचीत होती रही। कहा जाता है कि स्वयं नरेन्द्र मोदी ने भी डोनाल्ड ट्रंप से बातचीत की। इन सबका परिणाम सामने है। छ: महीने पूरा होने के बाद अमरीका क्या रुख अपनाता है यह देखना होगा। उस समय तक ईरान के साथ उसके संबंध कैसे रहते हैं, इस पर काफी कुछ निर्भर करता है। यूरोपीय संघ से लेकर उसके प्रमुख देश मध्यस्थता करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत ने इस कूटनीतिक अभियान के तहत यूरोपीय संघ से बातचीत की तथा इसके कुछ प्रमुख देशों के नेताओं से भी। तो भारत की भूमिका ईरान संकट के समाधान की दिशा में भी जारी है। हो सकता है इसके बेहतर परिणाम आए। ईरान के नाभिकीय और मिसाइल कार्यक्रम पर विराम अंतत: हमारे सामरिक हित में भी है। बहरहाल, अमरीकी छूट मई, 2019 तक कायम रहेगी। इसका अर्थ हुआ कि मोदी सरकार को आगामी आम चुनाव तक कच्चे तेल को लेकर तनाव नहीं होगा। इससे तेल की महंगाई पर भी थोड़ा अंकुश लगाने में सहायता मिलेगी। 

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