सबरीमाला का विवाद : सही है राज्य सरकार का रुख

भारतीय समाज में पुराने रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं की विशेष जगह बनी रही है। कई बार अंध-विश्वास तथा वहम-भ्रम भी इनमें आ शामिल होते हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के साथ-साथ धर्मों के क्षेत्र में भी ऐसी अनेक मान्यताएं बनी हुई हैं, जिनको श्रद्धालु किसी विवाद में पड़ने की बजाय श्रद्धा से मानते चले जाते हैं। बहुत पुराने समय की बात करें तो धार्मिक ग्रंथों और उत्तम पुस्तकों में महिला के सम्मान से जुड़ी कई कथाएं मिलती हैं। इनको उदाहरण के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है, परन्तु सदियों से व्यवहारिक रूप में बड़े स्तर पर महिला को पुरुष के समान दर्जा नहीं दिया जाता।  ज्यादातर तो उसको दासी बना कर ही रखने को प्राथमिकता दी जाती रही है। एक तरफ देवियों की पूजा की जाती रही है, दूसरी तरफ महिला को पर्दे के पीछे रखने, उसकी जुबानबंदी करने और उसको बच्चे पैदा करने का साधन ही समझा जाता रहा है। महिला के प्रति बने इसी रवैये के कारण उस समय अधिकतर समाजों में लड़की को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। बहुत सारे हवाले देकर छोटी-सी बालिका का ही विवाह कर दिया जाता था। दासी के दर्जे वाली महिला के पति के मरने पर उसको साथ ही सती कर दिया जाता था। जितने बढ़े प्रभाव वाला कोई व्यक्ति होगा या राजा-महाराजा होगा, जिन्होंने अपने हरम भी बनाये होते हैं या इसके अलावा एक व्यक्ति ने अधिक महिलाओं के साथ परम्परा के अनुसार विवाह भी करवाए होते हैं, उनमें से ज्यादातर को पति के साथ ही चिता में जलना पड़ता था या पति के मरने के बाद धिक्कारपूर्ण जीवन  जीने के लिए मजबूर किया जाता था। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ऐसी सती की बेहद बुरी प्रथा पर अंग्रेज़ सरकार के समय सरकारी तौर पर पाबंदी लगाई गई थी। हम यह सम्मान अवश्य ले सकते हैं कि देश की आज़ादी के बाद तैयार किए गए संविधान में महिला को हर तरह की समानता का दर्जा दिया गया है। इसके मुकाबले में पश्चिम देशों में महिलाओं ने समानता के और मताधिकार के लिए लम्बे संघर्ष किए, परन्तु हमारे संविधान में महिला को हर तरह की समानता के साथ-साथ वोट का पूरा अधिकार दिया गया। यह बात बड़ी प्रशंसा वाली है कि महिलाओं ने सचेत रूप में अलग-अलग संगठन बनाकर अपने साथ होती सामाजिक, पारम्परिक तथा अन्य हर तरह की ज्यादतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई और उन पर पड़ते अनेक दबावों से स्वयं को आज़ाद करवाने में प्रयास किया। पैदा हुई नई चेतना के कारण ही समय-समय पर महिला की आज़ाद हस्ती की पहचान के लिए कानून भी बने। ऐसे कानून जो पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के साथ होती हर तरह की ज्यादतियों से निज़ात दिलाने के लिए उनके पक्ष में खड़े होते हैं। गत दिनों मुस्लिम समाज की महिलाओं ने सचेत रूप में संगठित होकर तीन तलाक और हलाला जैसी परम्पराओं के रूप में होती ज्यादतियों से कानूनी तौर पर निज़ात पाई है। इसके लिए केन्द्र की नरेन्द्र मोदी की सरकार ने भी अपना बड़ा योगदान डाला है। अब ऐसा ही इम्तिहान सबरीमाला मंदिर में सामने आया है, जिसने एक बार तो देश भर का ध्यान इस मामले की ओर केन्द्रित किया है। गत लम्बे समय से इस मंदिर की यह परम्परा रही है कि इस मंदिर में 10 से 50 वर्ष तक की माहवारी की आयु वाली महिलाएं नहीं जा सकतीं। इसके विरुद्ध महिलाओं के अधिकारों के लिए सक्रिय संस्थाओं ने लगातार आवाज़ उठाई और यह भी कहा कि आयु का यह समय महिला के लिए करतारी होता है। ऐसे समय से ही कायनात का निर्माण होता रहा है। आयु की इस अवस्था को पाक-साफ और महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस लिंग पक्षपात की ज्यादती संबंधी गत 28 सितम्बर को यह फैसला दिया कि सबरीमाला के भगवान अयप्पा के मंदिर में हर आयु की श्रद्धा रखती महिला को जाने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के विरुद्ध केरल में जैसे एक तरह से तूफान उठ खड़ा हुआ है। इस फैसले के विरुद्ध महिलाएं ही अधिक उतर कर सामने आई हैं। क्योंकि अधिकतर महिलाओं की मानसिकता आज भी यह है कि स्वयं महिला होते हुए अपनी कोख से पैदा हुई लड़की का ज्यादातर वह स्वागत नहीं करती। इस फैसले को अंध-विश्वास जैसी अंधी-श्रद्धा रखने वाले श्रद्धालुओं ने भी एक तरह से चुनौती दी हुई है, जैसे कि अक्सर देखा गया है कि बड़ी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां वोटों की राजनीति की खातिर अक्सर दोगली नीति पर चलती नज़र आती हैं। यदि तीन तलाक और हलाला जैसे विषयों पर भाजपा मुस्लिम महिलाओं को हक दिलाने के कारण अपनी पीठ थपथपाती रही है, तो सबरीमाला के विषय में वह सुप्रीम कोर्ट के फैसला का विरोध करने वालों का समर्थन कर रही है। कांग्रेस भी वोट राजनीति के लिए हमेशा अवसरवादी रास्ता ही चुनती रही है। हम केरल में वामपंथी जन-तांत्रिक मोर्चे की सरकार की प्रशंसा करते हैं, जिसने इस मामले पर बहुत स्पष्ट रुख धारण किया है। मुख्यमंत्री पिनराई विजियन ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि सारे बड़े विरोध के बावजूद प्रांतीय सरकार उच्च न्यायालय के फैसले पर अमल करेगी। इस संबंधी मुख्यमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक इस कारण बिना निष्कर्ष के रही, क्योंकि कांग्रेस और भाजपा  लोगों के बहुमत को देखते हुए यह कहती रही है कि सरकार को इस फैसले पर अमल करने की बजाय किसी न किसी तरह इसको टालना चाहिए। हम सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे फैसले का स्वागत करते हैं। हम केरल की वामपंथी सरकार द्वारा धारण किए गए रुख की सराहना करते हैं कि उन्होंने वोट की राजनीति को त्याग कर महिला की स्वतंत्रता और समानता से जुड़े इस मुद्दे संबंधी सही रुख धारण किया। नि:संदेह राज्य की वामपंथी सरकार के इस रुख को ऐतिहासिक माना जाएगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द