रेडियो के दिन   भी क्या दिन थे... 

खुशी का माहौल था, घर में पौत्र का आगमन कुछ दिनों पहले ही हुआ था। लोग जुटे थे, जाने क्यों नवजात अचानक जोर-जोर से रोने लगा। पास खड़े बाबा ने कहा, मोबाइल से रेडियो ऑन कर इसे सुनाओ, कमाल, थोड़ी ऊं आं करने के बाद नवजात का रोना बंद हो चुका था। बाबा ने मजाक करते हुये कहा, ये क्या, रेडियो सुनकर तो इस उम्र में इसका बाप भी चुप हो जाया करता था। यह मजाक नहीं था, मैं गंभीर हो गया, अचानक रेडियो की, उस रेडियो वाले रूमानी जमाने की यादें एक के बाद एक कौंधने लगीं। रेडियो को आगोश में समेटे उन अलस दोपहरियों और उनींदी रातों की। गर्मियों में ठंडाती छत पर देर रात फिल्मी गीत या फि र जाड़े की नर्म धूप में बारामदे में बैठकर क्रिकेट कमेंटरी सुनने की। भारतीय टीम विदेश जाती तो वहां के मैच का आंखों देखा हाल सुनने की बेताबी को करार यह रेडियो ही तो देता था। रेडियो में आने वाले कुछ गीत सुनने के लिये होते थे तो कुछ सुनाने के लिये दिल की जुबान होते थे। बुधवार को बिनाका गीतमाला या खाने के वक्त हवामहल सुनने के लिये सबका एक जगह आ जाना या पिताजी के सुबह बीबीसी हिंदी सेवा सुनने के समय किसी का फिल्मी गीत, रामायण, चिंतन या भजन लगाना, गाने सुनने के मामले को लेकर दीदी से लड़ाई, कमेंट्री को लेकर मां से किच-किच। रेडियो का झालरदार कवर उतारने पर भी मां डांटती जो उन्होंने एक छींटदार चिकने कपड़े से खुद सिला था। हालांकि रेडियो का कवर चमड़े का आता था पर महंगा था और जो मोटे कपड़े, रेक्सीन, कम्बल या नमदे जैसी चीज़ का था वो सब पसंद नहीं आता था। मुझे झालर कवर डाऊन मार्केट लगता। पिता जी की डांट का सबब भी रेडियो ही बनता। कभी रेडियो प्रेम में पढ़ाई तो कभी घर के काम की अनदेखी इसकी वजह होती। उन दिनों रेडियो परिवार का ऐसा बच्चा था जिसे गोद में उठाने की ललक सबको थी। गांव जाता तो फ सल की रखवाली के लिये बने मचान पर या नदी में नाव खेते मल्लाह का रेडियो सुनना लुभाता,  मगर कांधे पर रेडियो टांगे, हल जोतने वाले या साइकिल की हैंडल में लटकाये रेडियो सुनते साइकिल सवार, मेले की भीड़ में लोगों का रेडियो मालिक होने का दिखावा करते देख कर मुसकाता पर पढ़ाई की टेबल, बिस्तर और बाथरूम तक रेडियो को साथ रखने की अपनी आदत पर कभी ध्यान नहीं देता। उस जमाने में शादी का एक आकर्षण यह भी था कि दूल्हे को उपहार में साइकिल, अंगूठी और घड़ी किस ब्रांड की मिली है, यह बाद की बात है, रेडियो कौन सा मिला है, यह जानना ज़रूरी है। एक बार एक साइकिल का जवाब था, मीलों चले जाते हैं गीत गवनई के चक्कर में थकान का पता ही नहीं चलता। आजकल हर कार में एफ एम का पूर्वज वही है शायद। खैर, गांव में भी मेरी सुबह रेडियो के समाचारों के साथ होती, गांव वाले भी बीबीसी सुनते, आकाशवाणी समाचारों की अहमियत यह थी कि सुनते हैं घुबरी यादव समाचारों को एक कॉपी में लिख लेता था ताकि याद रहे और बात बहस में काम आये। कुछ लोग गांव में तब चीन, अमरीका ही नहीं, वियतनाम और अफ्रीका बतियाते थे, रेडियो के ही चलते।  दोपहर के खाने के बाद रेडियो लेकर पेड़ के नीचे झपकी लेने का शगल स्थायी था। तिपहर से शाम तक अगर ताश मंडली के साथ कटती तब भी रेडियो चालू रहता। शाम होते ही गांव के कई पड़ोसी अधेड़, नौजवान घर आ धमकते, वजह रेडियो पर जुगानी भाई का कार्यक्रम सुनना है, जो खेती की बातों के साथ मस्त लोकगीत और रेडियो नाटिका सुनवाते हैं। रेडियो आवाज़-ए-बुलंद होता और आंगन चौपाल बन जाता। रात तो खैर, मस्त रूमानी गीतों के लिये ही बनी थी। दोस्त बताते थे कि बहुतों ने अपने नाम पते की मुहर बनवा रखी है, जो फ रमाइशी गानों के पोस्टकार्ड पर लगा देते हैं; क्योंकि वे एक ही बार में दर्जनों फ रमाइश भेजते हैं, झुमरी तिलैया ही नहीं, कई पते ठिकाने इसीलिये मशहूर थे। कभी-कभी इस बात पर भी चर्चा छिड़ जाती कि मर्फी के विज्ञापन में जो घुंघराले बालों वाला बच्चा है, वह अब कहां हैं या फि र लोहा सिंह का करेक्टर कैसे तैयार हुआ होगा, अथवा कल का हवामहल जो छूट गया उसमें क्या था? चर्चा इस बात की भी होती कि बुश, मफ र्ी और फि लिप्स में किसकी आवाज़ दमदार है। फि लेटा, फि लेटिना, जवान और कमांडर में कौन दमदार है। दूसरे कंपनी का कौन सा मॉडल इनके मुकाबिल है, कौन सा रेडियो किस स्टेशन को साफ  नहीं पकड़ता। अजरा कुरैशी, अमीन सायनी, देवकी नंदन पांडे और तबस्सुम, जसदेव सिंह, सुरेश सरैया, सुशील दोषी इस तरह से कैसे बोल लेते हैं, यह कौतूहल का विषय होता। ढेरों रेडियो श्रोता संघ बने हुये थे वे और उनके सदस्य आपस में मिलते-जुलते भी थे। कलाकारों से बातचीत, शास्त्रीय संगीत, नाटक, वार्ताएं, घरेलू कार्यक्रम, स्वास्थ्य वगैरह की जाने कितनी जानकारियों का स्रोत था तब रेडियो।  एक दिन ताऊ जी से पता चला कि मेरा रेडियो रेडियो नहीं है। उन्होंने बताया कि रेडियो तो उनके पास था जो अब अटारी पर खामोश पड़ा है। चमकती चिकनी लकड़ी से बना, दो गोल घुंडियों और खूबसूरत बादामी जालीदार पर्दे वाला। कभी बर्मा से लाया गया वह विशालकाय चीज़ है रेडियो, यह तो छोटा सा ट्रांजिस्टर है। उनके अनुसार भले इस विशालकाय रेडियो की आवाज बहुत साफ  और सुरीली रही हो पर मेरे हिसाब से इस बाल्व वाले रेडियो को अगर आधे गाने के दौरान चालू कीजिये तो अगले गाने की शुरुआत के बाद ही इससे आवाज़ फूटेगी तय है। लेकिन इसके बावजूद ताऊ जी के लिये उस रेडियो के आगे जो चार बैटरियों से चलने वाला विदेश से आया शायद बुश का बैरन मॉडल था और शानदार कवर चढ़ाकर उसके लिये बनी खास तिपाई पर रखा जाता था, ट्रांजिस्टर की लघुता हमेशा ही बनी रही। वे दावा करते कि यह रेडियो आठ बैंड का था और मेरा ट्रांजिस्टर महज दो बैंड मीडियम और शार्टवेव का है। जिसमें भी शार्टवेव के अधिकतर स्टेशन गों गां गूं कीं क्रीं ही करते रहते हैं। वह ये मानने को कतई तैयार नहीं होते कि यह उन्नत तकनीक है, इसमें पूरे कमरे के आरपार तांबे का जालीनुमा एंटीना नहीं लटकाना पड़ता, एक लंबा सींक सरीखे खोखले एरियल से ही काम चल जाता है। रेडियो के बहाने दो पीढ़ियों की यह मीठी तकरार भी एक याद ही है, वरना अब कौन किसका ताऊ। कुल बात यह थी कि रेडियो से ट्रांजिस्टर तक आते-आते यह थोड़ा आम हो चला था, नाई और पान की दुकान तक यह पहुंचने लगा था जबकि बाल्व वाला रेडियो अभिजात्यता की निशानी थी। किसी-किसी के घर ही होता और जिसके घर होता था अमीरी और बड़प्पन का उद्घोष करता हुआ आवश्यकता से थोड़ा ज्यादा ही तेज़ बजता था। उस जमाने में रेडियो व ट्रांजिस्टर का लाइसेंस बनवाना पड़ता था। बैंक की पासबुक या पासपोर्ट जैसी एक किताब में हर साल पोस्ट ऑफि स जाकर उस पर लाइसेंस फ ीस के मूल्य बराबर टिकट चिपकवाना पड़ता था। अगर लाइंसेंस का नवीनीकरण नहीं करवाया तो रेडियो के लाइसेंस इंस्पैक्टर आपके रेडियो को अवैध उपकरण बताकर पकड़ सकते थे। रेडियो फि र लोकप्रिय हो रहा है, अब इसे बुजुर्गों, किसानों मजदूरों की बजाय नौजवानों का साथ मिला है। आजकल एक विज्ञापन दिखता है जो एक ऐसे रेडियो के बारे में हैं, जिसमें तरह-तरह के पांच हज़ार गानों का संकलन है। पर यह रेडियो उस रेडियो की बराबरी कैसे कर सकता है। यह अगर गीतों का खूबसूरत तालाब है तो वह प्रवाहमयी सरिता थी।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर