प्राचीन कलात्मक परम्परा का अद्भुत नमूना पहाड़ी शॉल

हि.प्र. में कलात्मक बुनाई से बनी पहाड़ी शॉलों का विशिष्ट स्थान है। ये शॉलें उनकी प्राचीन कलात्मक परंपरा का अद्भुत नमूना भी हैं। इन शॉलों की बुनाई की तकनीक और डिजाइन पर मध्य एशिया और तिब्बत का प्रभाव देखा जा सकता है। शॉलों के अलावा हिमाचल प्रदेश में बने ऊनी वस्त्र हस्तनिर्मित होते हैं जिन्हें महिलाएं घर पर ही बनाती हैं। हालांकि आजकल यहां फैक्टरी से बने ऊनी वस्त्र और शॉलें भी मिलती हैं लेकिन हाथ की बनी शॉलों की बात तो कुछ और ही है। इतिहास- बेहद पुरानी इन पहाड़ी शॉलों का कोई नमूना या ऐतिहासिक संदर्भ किसी संग्रहालय में उपलब्ध नहीं है। लेकिन कहा जाता है कि हिमाचल प्रदेश में बनी ये शॉलें कश्मीर और तुर्किस्तान की शॉलों की तरह काफी पसंद की जाती रही हैं। कश्मीरी शॉलों के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि कौरव- पांडवों के जमाने में भी यह काफी मशहूर थीं। कश्मीरी शॉलें कश्मीर के विशिष्ट कारीगर बनाते थे। 1815 में ब्रिटिश अधिकारी जेबी फ्रेजर ने अपनी स्मरण यात्रा में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में पर्याप्त मात्रा में उम्दा किस्म की ऊन पाये जाने और उनका भूटान से निर्यात करने का जिक्र किया है। जिनमें शॉलों को उनके सुंदर रंगों और डिज़ाइनों के लिए जाना जाता है। शिमला, कुल्लू, मंडी, चंबा, मनाली, किन्नौर, इन तमाम जिलों में बनने वाली शॉलों के बनाने में हज़ारों पहाड़ी परिवार लगे हैं जिनकी जीविका का एकमात्र साधन यही है। यहां हर घर में एक करघा होता है, जिसमें घर की औरतें अपने निजी इस्तेमाल के लिए शॉलें, मफ लर, मोजे, टोपियां बुनती थीं। बाद में यही स्त्रियां घर चलाने के लिए बाज़ार से आर्डर लेकर शॉलें और दूसरे ऊनी वस्त्र को बुनने लगीं। बाद में धीरे-धीरे राज्य सरकार द्वारा इन शॉलों के बुनाई के प्रशिक्षण के लिए केंद्र खोले और शॉलों के बढ़ते आकर्षण के कारण यह व्यवसाय का रूप लेता चला गया। कई दशकों तक इन पहाड़ी शॉलों का मुख्य केंद्र रोहतांग था यहां से शॉलें तिब्बत और लद्दाख जाती थीं और बदले में वहां से व्यापारी पश्मीना ऊन लेकर उससे शॉलों को बनाते थे। कच्चा माल- हिमाचल में गर्म वस्त्र और शॉलों को बनाने के लिए ऊन का इस्तेमाल किया जाता है। बुनाई की प्रक्रिया पूरे हिमाचल में लगभग एक जैसी है। ऊन के लिए भेड़ों के शरीर के निचले हिस्से से ऊन उतारी जाती है। हमीरपुर, चंबा, मंडी और किन्नौर में भेड़ों के फ ार्म देखे जा सकते हैं। इसके अलावा हिमालय क्षेत्र से भी ऊन मंगायी जाती है। खरगोश से अंगूरा और बकरी के बालों से पश्मीना ऊन तैयार की जाती है। गर्मी के दिनों में बकरियों के प्राकृतिक रूप से बाल झड़ने से ऊन प्राप्त होती है। इसके अलावा आस्ट्रेलिया और दूसरे देशों से हिमाचल प्रदेश द्वारा आयातित ऊन को रासायनिक और प्राकृतिक डाई द्वारा अलग-अलग रंगों में रंगकर इनकी शॉलें बनायी जाती हैं। इन शॉलों को बनाने में हर स्तर पर महिलाओं का हाथ होता है। वे कच्चे ऊन को रोओं से अलग करके उन्हें धोकर साफ करके चावल के आटे में गूंथकर इन्हें सुंदर ऊन के गोलों का रूप देती हैं। उसके बाद स्त्री और पुरुष दोनों करघे पर बैठकर इनके डिज़ाइन तैयार करते हैं। ये शॉलें बाजार में किन्नौरी, किंगरी, सिंदरी, फूलवारा, बुलबुल, चश्म आदि हैं। इनमें से कुछ शॉलों के डिज़ाइन पूरे देश में मशहूर हैं। कुल्लू की किन्नौरी धारीदार डिज़ाइन वाली शॉलें गाढ़े रंगों में मिलती है, जिन्हें कुशल बुनकरों द्वारा बुना जाता है। स्त्रियों के लिए पट्टू और पुरुषों के लिए चद्रू दोनों ही शॉलें लंबी होती हैं। इन शॉलों को आज भी तीज-त्यौहार और शादी-ब्याह में शुभ माना जाता है। देखने में आकर्षक और शुद्ध ऊन से बनी यह शॉलें काफी महंगी होती हैं। हथकरघे पर बुनी और कई रंगों में मिलने वाली यह शॉलें पूरे भारत में पसंद की जाती हैं। इसके अलावा कुल्लू, चंबा और लाहौल शॉल भी अलग-अलग डिज़ाइन और किस्मों में मिलती हैं।

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