हुस्न की मलिका नूरजहां

नूरजहां अच्छी पढ़ी-लिखी थी।  वह इतनी ज्ञानवान हो चुकी थी कि फारसी के शेअर लिखने में बड़े-बड़े विद्वानों को मात दे दिया करती थी। उसने बागों की शोभा, सुदंरता की उपमा और इश्क के विषय पर बड़े ऊंचे विचार प्रकट किए। वह फूलों की बहुत शौकीन थी। गुलाब के इत्र की खोज उसने ही की है। वह घोड़े की सवारी बहुत अच्छी तरह करना जानती थी। उसके चरित्र का सबसे प्रमुख लक्ष्य उसकी बेहद इच्छाएं थीं, जिस कारण उसने अपने पति पर अत्यंत प्रभाव स्थापित कर लिया। उसके पिता इतमद-उद-दौला (गियास बेग) और भाई आसफ खां दरबार के प्रमुख सरदार बन गए तथा उसने अपने पहले पति से पैदा हुई पुत्री का विवाह जहांगीर के छोटे पुत्र शहजाद शहरयार से कर दिया और इससे अपना स्थान और मजबूत बना लिया।मलिका नूरजहां राजनीति की चालों में बड़ी निपुण थी। वह बादशाह जहांगीर को हमेशा योग्य सलाह देती थी। लाहौर के सूबेदार मुरतज़ा खां की मौत 1617 ई.को हुई। उसकी मृत्यु के बाद डर था कि कहीं लाहौर में अशांति न पड़ जाए, इसलिए जहांगीर ने जल्द ही राज्य प्रबंध का काम नूरजहां के पिता इतमद-उद-दौला (गियास बेग) को सौंप दिया। राज्य प्रबंध संभालने के बाद गियास बेग ने जहांगीर को लाहौर बुलाया। उसका रास्ते में ही शाही स्वागत किया गया। जब जहांगीर अमृतसर आया तो श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने हुकम दिया कि जो चीज़ें शाही नौकर, फौज या करिन्दे खाना चाहते तो उनको बगैर मूल्य के दी जाए और उसका मूल्य गुरु जी उतारेंगे। जहांगीर नूरजहां समेत श्री दरबार साहिब गया और अकाल तख्त सजे दीवान में पहुंच कर नम्रता से बैठ गया। गुरु बिलास पातशाही छठी के अनुसार कुछ समय कीर्तन भी सुनता रहा। गुरु जी दीवान की समाप्ति के बाद उसको मिले। लश्कर समेत जहांगीर को प्रसाद छकाया। जहांगीर ने जब राज्य खजाने में से खर्च देने के लिए इच्छा प्रकट की तो श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब जी ने कहा कि यह सब संगतों की वस्तु है, संगतें ही इसको चलायेंगी। नूरजहां ने माता गंगा जी से आशीश की मांग की। जहांगीर जब श्री अमृतसर से लाहौर पहुंचे तो उनका शानदार स्वागत किया गया। जहांगीर ने शालीमर के बड़े जश्न में गियास बेग को वज़ीर-ए-आज़म नियुक्त किया। जहांगीर ने गियास बेग की सिफारिश पर ही कासम बेग को लाहौर की हुकूमत सौंप दी। कासम खान, गियाम बेग का दामाद था। नूरजहां की बड़ी बहन मनीजा बेगम कासम बेग से विवाहित थी। जहांगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब जी को संदेश भेजकर लाहौर बुला लिया। गुरु साहिब लाहौर पहुंचे और गुरु साहिब ने अपना कैम्प मजुंग ही रखा। जहांगीर और गुरु पातशाह की कई बार भेंट हुई। नूरजहां भी श्री गुरु हरगोबिंद पातशाह जी के दर्शनों को जाए। गुरु पातशाह ने कहा, ‘जिस खुदा ने सुंदरता और कई ओसाफ बख्शे हैं, उसको हमेशा याद रखना ही मज़हब है। याद-ए-इलाही में लगे रहना और खावंद की वफादार स्त्री होना ही जन्नत का अधिकारी बनाता है।खुदा का डर और गुनाह से परहेज़ ही धर्म के ज़रूरी अंग हैं। जहांगीर ने भी गुरु साहिब को पूछा कि आपके दरबार में देश-विदेश की खूबसूरती आती है। आप मन पर नियंत्रण कैसे रखते हैं। गुरु साहिब ने कहा कि मौत को हर समय याद रखना और अल्लाह की याद दिल से न भुलाने से रूप अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। गुरु साहिब कुछ दिन वहां रहे और फिर अमृतसर आ गए। लेकिन अमृतसर रहे नहीं और दोआबा की ओर चल पड़े। जहांगीर जश्न से फुर्सत पाकर कुछ महीने लाहौर रहा और 1620 ई. की गर्मियों के आरम्भ होने पर ही पहली बार नूरजहां को साथ लेकर कश्मीर चला गया। मलिका नूरजहां, शहजादा खुर्म जो बाद में शाहजहां बना, के विरुद्ध थी, क्योंकि वह जहांगीर के बाद शहज़ादा  शहरयार को बादशाह बनाना चाहती थी, क्योंकि नूरजहां की लड़की (शेर अफगान की बेटी) शहरयार से विवाहित थी। इस बात में महाबत खान जैसे जरनैल और अमीर शहज़ादा खुर्म के समर्थक थे। नूरजहां की प्रेरणा से बादशाह जहांगीर ने महाबत खान को एक दोष में सफाई पेश करने के लिए निमंत्रण भेजा। वह अपने साथ पांच हज़ार हथियारबंद राजपूत लेकर हाज़िर हो गया। बादशाह का डेरा उस समय दरिया जेहलम के पास था। महाबत खान ने ऐसी चाल चली कि मलिका नूरजहां को बादशाह जहांगीर से अलग कर दिया और शाही कैम्प के आस-पास अपनी सेना से घेरा डाल लिया। बादशाह जहांगीर को घेरे में देखकर मलिका नूरजहां ने बुद्धि और प्रवीणता से काम लिया और एक टेढ़ी राजनीतिक चाल चलकर बादशाह जहांगीर को महाबत खान के पंजे से साफ बचा कर ले गई। वहां ही जहांगीर को जोड़ों की सख्त पीड़ा हुई। बादशाह दक्षिण की ओर चलने के लिए तैयार थे, लेकिन स्वास्थ्य इतना ज्यादा बिगड़ चुका था कि उधर न जा सके। यहां से जहांगीर फिर कश्मीर ही चला गया। जहांगीर घोड़े पर सवार नहीं हो सकता था और पालकी में ही इधर-उधर जाता था। जहांगीर 1627 ई. की सर्दी के आरम्भ में लाहौर वापिस चला गया।