दुनिया गोल है

बात आज से 31-32 वर्ष पुरानी है। यद्यपि मैं एक वैज्ञानिक हूं, लेकिन अपने आप को लेखक समझना तथा लेखकों से मेल-मिलाप रखने का कुछ ज्यादा ही शौक था। जब किसी अन्य शहर से कोई लेखक आता, विशेषकर वह लेखक जो मेरे लिए अपनी पुस्तक की प्रति लेकर आया हो, तब तो मेरी खुशी का पारावार न रहता था। मैं उसे अपने घर ले आता और उसकी खूब सेवा करता। मेरे मां-बाप का घर चौड़े बाज़ार के निकट ही था। इसलिए घर ढूंढने में लेखकों को अधिक कठिनाई न होती तथा निकट की एक-दो निशानियां बतलाने पर मेरा घर मिल जाता था। इसलिए मेरे यहां पधारने तथा रात गुजारने वालों की कभी कमी नहीं हुई थी। मगर कुछ लेखकों के साथ मेरा अनुभव कड़वा रहा था। उनके लिए तो लुधियाना में मेरा घर रात बिताने के लिए बढ़िया ठिकाना मिल गया था। दो-तीन बार एक दो लेखक मेरे घर आकर उल्ल-जलूल बोलते रहे तथा रात भर उल्टियां भी करते रहे। धार्मिक प्रवृत्ति वाले मेरे परिवार को उनका इस प्रकार का व्यवहार बहुत अखरा.... अंतत: मुझे कोई न कोई बहाना बनाकर उन्हें अपने यहां ठहरने से मना करना पड़ा। मगर फिर भी न तो मेरा लेखक प्रेम ही कम हुआ और न ही लेखकों ने मेरे यहां डेरे लगाने बंद किये। कई लेखकों को तो बाहर से आकर दिल्ली जाने के लिए लुधियाना से रात की गाड़ी पकड़नी होती थी तो किसी लेखक को लुधियाना के एक प्रकाशक के यहां अपनी पुस्तक के प्रूफ पढ़ने होते थे। बाद में शिरोमणि अवार्ड से सम्मानित कुछ लेखक तो मेरे घर ऐसे डेरा लगा लेते थे मानो सरकार ने उनकी रिहायश का प्रबंध मेरे घर में कर रखा हो। पर समय गुजरने के साथ मुझे इन लेखकों से ऊब होने लगी थी, क्योंकि प्राय: इनकी बातों का सिलसिला शराब तथा औरतें ही होती थीं। मगर जल्दी ही मैंने भाई रणधीर सिंह नगर में अपना घर बना लिया था। यह इलाका दूर होने के कारण लेखकों का यहां आना जाना बिल्कुल ही कम हो गया था, क्योंकि यहां आने के लिए उनको रिक्शा वाले को काफी पैसे देने पड़ने थे... और लेखकगण हिसाब-किताब में तो हिसाब के अध्यापकों को भी मात दे दें। उन दिनों मेरी कहानियां तथा वैज्ञानिक विषयों से संबंधित लेख समाचार-पत्रों तथा पत्रिकाओं में प्राय: प्रकाशित हुआ करते थे। उन्हीं दिनों विश्वविद्यालय में मेरे विभाग में एक व्यक्ति आया। उसने मेरे सामने एक पत्रिका रखते हुए अपने बारे में बतलाया कि वह करनाल का रहने वाला है तथा इस पत्रिका का सम्पादक है। पत्रिका में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था जो उसने किसी अन्य पत्रिका से लिया था। उसने यह भी बताया कि वह पहले कैप्टन था लेकिन कुछ पारिवारिक समस्याओं के कारण उसे नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा था। पत्रिका में प्रकाशित एक फोटो में वह हवाई जहाज के आगे राजीव गांधी तथा कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ खड़ा था। उसने यह भी बताया कि वह जहाज उड़ाया करता था तथा राजीव गांधी उसका सहायक था। मेरे मन में यह विचार भी आया था कि यह आदमी तो काफी पहुंच वाला है तथा भविष्य में मेरे काम भी आ सकता है। मैं उसे एक अच्छे होटल में खाना भी खिला लाया था। ‘क्षमा करना, मैं तो आपके पास एक सहायता के लिए आया हूं। वास्तव में बस स्टैंड पर किसी ने मेरी जेब काट ली है। मेरे पास तो किराये जितने पैसे भी नहीं हैं। आप कृपया मुझे एक सौ रुपए उधार दे दो...’ और इससे पहले कि मैं कुछ कहता उसने झट से अपना बैग खोलकर चैक बुक निकाल ली तथा मेरे नाम से एक सौ पचास रुपए का चैक काट दिया था। इसमें पचास रुपए उस लेख का पारिश्रमिक है, जिसे मैंने अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया है। एक लेख का पचास रुपए पारिश्रमिक! मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ। मैंने उसे एक सौ रुपया भी दे दिया तथा अपनी नव-प्रकाशित पुस्तक की दो प्रतियां भी समीक्षा के लिए दे दीं। उसने पूरा विश्वास दिलाया था कि पत्रिका के आगामी अंक में समीक्षा अवश्य प्रकाशित हो जायेगी। .... और फिर वही हुआ, जो कभी सोचा नहीं था मगर आजकल प्राय: होता है। बैंक वालों ने चैक वापिस लौटा दिया था क्योंकि धारक के खाते में पैसे नहीं थे। मेरी पुस्तक की समीक्षा भी प्रकाशित नहीं हुई, क्योंकि एक अंक के पश्चात् पत्रिका का कोई और अंक प्रकाशित ही नहीं हुआ था। मैंने उस सम्पादक कैप्टन को कई पत्र लिखे.... मगर उसने एक भी पत्र का उत्तर नहीं दिया।बात आई गई हो गई। इतने वर्षों बाद अपने एक व्यंग्य में मैंने इस घटना का वर्णन किया था। मुझे कई पाठकों के फोन आये थे। एक फोन कनाडा निवासी एक लेखक का भी था जो उन दिनों भारत आया हुआ था। उसने बताया कि वह वही आदमी/सम्पादक है, जिसका मैंने अपने व्यंग्य में जिक्र किया है।  मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा था कि इतने वर्षों बाद भी इस प्रकार मेल हो सकता है। मुझे प्रतीत हो रहा था कि सचमुच ही दुनिया गोल है। वह मुझे मिलने को बहुत उत्सुक था। मगर पुराने अनुभव के आधार पर मैंने उसे स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया था। मैं अपना और नुक्सान नहीं करवाना चाहता था।

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