इतिहास का गवाह है कांगड़ा का किला

कांगड़ा शहर से तीन-चार किलो मीटर दूर माझी और बाणगंगा नदियों के बीच में एक सीधी तंग पहाड़ी पर बना है कांगड़ा किला। कहा जाता है कि इसे महाभारत काल में राजा सुशर्मा ने बनवाया था। यहां पहली बार आक्रमण मुस्लिम आक्रान्ता महमूद गजनवी ने 1009 में किया था। गजनवी विजयी हुआ और लाखों की सम्पदा यहां से लूट कर ले गया। बाद में 1337 में मोहम्मद बिन तुगलक ने, फिर शेरशाह सूरी के सेनापति ने भी इस पर आक्रमण किया। अपने शासन काल में यह अकबर के राज्य का भी हिस्सा था। वह इसे नगरकोट कहता था। 1782 तक म़ुगलों का कब्ज़ा रहा। फिर राजा संसारचंद्र ने रणजीत सिंह के पिता सरदार महासिंह की सहायता से अपने अधीन कर लिया। 1805 में गोरखाओं ने अमर सिंह थापा के नेतृत्व में आक्रमण किया। 1846 में यह अंग्रेज़ों की छावनी बना। 1905 में कांगड़ा घाटी में भयानक विनाशकारी भूकम्प आया। उससे 80 प्रतिशत आबादी व इमारतें नष्ट हो गईं। इससे इस किले को बहुत नुकसान पहुंचा। आज भी किला उस भूकम्प की कहानी कहता है। जो दीवारें हज़ारों सालों से बाहरी आक्रमणों को निर्बाध सहती रहीं। इस भूकम्प के आगे वे भी न टिक सकीं। हालांकि बाद में दरवाज़ों, दीवारों आदि की मुरम्मत भी की गई, लेकिन किला फिर भी वीरान खंड्हर ही है। यह किला आज भी काफी रहस्यमयी है। इसमें कई सुरंगें हैं, जिनके गंतव्य का कुछ भी पता नहीं चल सका है। बुर्ज आदि की बनावट भी अन्य किलों की अपेक्षा अलग है। मुख्य द्वार रणजीत सिंह द्वार के नाम से जाना जाता है। मुख्य द्वार के पास ही भारतीय पुरातत्व विभाग का संग्रहालय है। प्रवेश के लिए पांच रुपये का टिकट भी लगता है। यहां तक पहुंचना थोड़ा पेचीदा है। अगर पैदल चल सकते हैं तो कांगड़ा शहर में सुप्रसिद्ध नगरकोट वाली वृजेश्वरी देवी मंदिर के ठीक सामने से ऊपर को रास्ता जाता है। यहां से किला मात्र अढ़ाई किलोमीटर दूर है। बाकी गाड़ियों के रास्ते का वहीं पता करना पड़ेगा।