किसी अजूबे से कम नहीं देशनोक का मंदिर

थार रेगिस्तान में बीकानेर से लगभग 32 किलोमीटर दूर मरू टीलों के बीच एक चर्चित गांव है-देशनोक। बीकानेर ज़िले के इस प्रसिद्ध गांव में करणी माता का एक मंदिर है जो ‘चूहों का मंदिर’ नाम से प्रसिद्ध है। मरु टीलों के बीच बसा यह छोटा सा गांव इस मंदिर के कारण दुनिया भर में विख्यात है। चूहों का ऐसा संगम शायद ही दुनिया में अन्यत्र कहीं देखने को मिले। इस मंदिर में हर तरफ चूह ही चूहे नजर आते हैं। कोई आराम करता हुआ, कोई खाता हुआ, कोई पीता हुआ तो कोई आपस में खेलता हुआ। रोचक बात यह है कि मन्दिर में जहां तक नजर जाती है, वहीं ये चूहे विचरण करते हुए नजर आएंगे। सुबह एवं संध्या की आरती के समय आपको मंदिर प्रांगण में हज़ारों की संख्या चूहे नजर आएंगे। संध्या आरती के समय तो जो भक्त एक बार जहां खड़ा होता है, आरती पूर्ण होने तक उसे वहीं खड़ा रहना पड़ता है क्योंकि पूरा मंदिर प्रांगण चूहों से भर जाता है। आरती के पश्चात् बड़े-बड़े थालों में इनके लिए भोजन रख दिया जाता है तथा भक्त लोग इतने चूहों को एक साथ भोजन करते देख धन्य हो जाते हैं। कहते हैं, इस मंदिर में एक सफेद चूहा है जो किसी सौभाग्यशाली को ही दिखाई देता है। उस पर माता की विशेष कृपा होती है। इन चूहों को खाने के लिए मंदिर के पुजारी मिठाई, अनाज, दूध एवं पानी देते हैं। मंदिर में आने वाले भक्त भी इनके लिए लड्डू, बर्फी, पेड़ा, दूध एवं अन्य मिठाई चढ़ाते हैं। मंदिर में इन चूहों के लिए एक अलग रसोईघर है जहां बड़े-बड़े कड़ाहों में इनके लिए भोजन तैयार होता है। खास बात यह है कि इनके छोड़े हुए भोजन को भक्तों में प्रसाद के रूप में वितरित कर दिया जाता है और भक्त लोग बड़ी प्रसन्नता से प्रसाद ग्रहण करते हैं। चूहों को कोई पक्षी न झपट ले जाए, इसके लिए मंदिर प्रांगण के ऊपर लोहे की जालियां लगी हुई हैं। मंदिर में प्रवेश करते ही एक बोर्ड पर लिखा है कि ‘अगर किसी के पैर के नीचे दबकर कोई चूहा मर गया तो बदले में उसे चांदी का चूहा देना होगा। कृपया सावधानी से चलिए। इसलिए श्रद्धालु मंदिर में पैर घिसटकर चलते हैं। इन चूहों ने आज तक किसी को नहीं काटा है। गुजरात में फैले प्लेग के दौरान एक वैज्ञानिक दल भी निरीक्षण के लिए यहां आया था परंतु इन चूहों में किसी तरह की कोई बीमारी नहीं पाई गई।
माना जाता है कि करणी माता का वरदान है कि देशनोक में कभी कोई महामारी नहीं फैलेगी। ऐतिहासिक एवं धार्मिक मान्यता है कि करणी माता का जन्म सुआप गांव (जोधपुर) के चारण वंश के मेहोजी के घर विक्रमी संवत् 1444 में अश्विनी शुक्ला सप्तमी को हुआ था। कहते हैं कि मेहोजी एवं उनकी पत्नी देवल ने इष्टदेवी हिंगलाज की लम्बी आराधना की जिससे प्रसन्न होकर देवी ने दुर्गा रूप में इन्हें दर्शन दिए और वर मांगने को कहा। मेहोजी और देवल ने देवी से अपने घर में जन्म लेने का वर मांगा। देवी ने इन्हें यह वर दे दिया और इनके घर जन्म लेने का वचन भरा। मान्यता है कि करणी माता ने नौ की बजाय 21 माह गर्भ में रह कर जन्म लिया था और प्रसूति के समय देवल को दुर्गा रूप में दर्शन देकर अपने वचन का स्मरण कराया था। मेहोजी और देवल माता ने इनका नाम ‘रिधूबाई’ रखा था परंतु बचपन से ही अपने अलौकिक चमत्कारों तथा रोगियों के रोग दूर करने के कारण इनका नाम ‘करणी’ रख दिया गया। करणी माता ने जनमानस को अनेक चमत्कार दिखाये और धीरे-धीरे करणी माता यहां के लोगों की आराध्य देवी बन गईं। करणी माता के संबंध में यहां अनेक जनश्रुतियां प्रचलित हैं। कहते हैं कि भूख प्यास से व्याकुल एक मुगल राजा की सेना को माता ने भरपेट भोजन कराया था जबकि भोजन कुछ ही लोगों का था। करणी माता ने जोधपुर नरेश जोधा जी के पुत्र बीका जी को देशनोक के पास एक नई रियासत बसाने का आशीर्वाद दिया तथा खुद अपने हाथों से उसकी नींव रखी जिसका नाम बीकानेर रखा गया। करणी माता के आशीर्वाद से बीकानेर एक समृद्ध रियासत बनकर उभरा। राजपूत नरेश जोधा जी एवं बीका जी जीवन पर्यन्त माता के उपासक रहे। वर्तमान मंदिर के स्थान पर पहले एक गुफा थी जहां करणी माता ने ज्यादातर समय बिताया। बाद में बीकाजी के वंशज नरेशों ने यहां संगमरमर का मंदिर बनवा दिया। मंदिर के गर्भगृह में उस गुफा का कुछ हिस्सा अब भी है।
सुआप गांव देशनोक से लगभग 127 किलोमीटर दूर है और यहां पुराना जाल का वृक्ष अब भी है जहां माता का झूला विद्यमान है। मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत आकर्षक है। प्रवेश द्वार पर फूल, पत्तियों के डिज़ाइन के अलावा हाथी तराशे गए हैं। प्रवेश द्वार चांदी का बना हुआ है और उस पर महीन कलाकारी की गई है। प्रवेश द्वार के बाहर संगमरमर के बने शेर बैठे हुए दिखाई देते हैं। मंदिर के बाकी तीन द्वार  भी चांदी के बने हुए हैं तथा मंदिर के गर्भगृह में शुद्ध सोने के अनेक छत्र चढ़ाए हुए हैं। करणी माता का सिंहासन भी सोने का बना हुआ है। करणी माता को चूहों एवं गायों से विशेष लगाव था, इसलिए इस गांव के लोग अपने पशुओं के क्रय-विक्रय के पश्चात् उनका दूध यहां चढ़ाते हैं। इससे उन्हें पशु धन में लाभ मिलता है। वैसे तो यहां कभी भी आया जा सकता है परंतु नवरात्रों में यहां भारी मेला लगता है तथा दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। यहां अन्य प्रदेशों से भी श्रद्धालु आते हैं। विदेशी सैलानी भी यहां खूब आते हैं और माता के इस अद्भुत मंदिर एवं उसके चूहों को देख कर दंग रह जाते हैं। निश्चित रूप से इस मंदिर को देखे बिना यात्रा अधूरी रह जाती है। (अदिति)

—रामचन्द्र गहलोत