भोजन का पूरा आनंद

कथा सिद्धार्थ के उस दौर की है, जब वह बुद्धत्व को प्राप्त नहीं हुए थे और निरंजना नदी के तटीय वनों में पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे। सामान्यत: सिद्धार्थ का नियम था कि वह ध्यान से मुक्त होकर समीप स्थित गांवों में जाते और शाम तक भिक्षा मांगकर लौट आते। कुछ दिनों के बाद उन्होंने भिक्षाटन बंद कर दिया, क्योंकि एक ग्राम प्रधान की छोटी लड़की उनके साधनास्थल पर पीपल के वृक्ष के नीचे ही उनके लिए नित्य भोजन लाने लगी थी। लड़की का नाम था सुजाता। वह रोज सिद्धार्थ के लिए भात लेकर आती। उसी गांव का एक चरवाहा, जिसका नाम स्वस्ति था, सिद्धार्थ से प्रभावित हो उनके पास आने लगा। एक दिन जब स्वस्ति सिद्धार्थ के पास बैठा था, तभी सुजाता भात लेकर आई। इससे पहले सिद्धार्थ और स्वस्ति बातें कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने भोजन शुरू किया, वे मौन हो गए। उनके बीच वार्तालाप बंद रहा और माहौल में शांति पसरी रही।इस दौरान स्वस्ति और सुजाता वहीं चुपचाप बैठे रहे, जबकि सिद्धार्थ तन्मयता से भोजन करते रहे। स्वस्ति को कुछ समझ में न आया कि अचानक सिद्धार्थ ने मौन क्यों धारण कर लिया। उनके भोजन कर लेने के बाद स्वस्ति ने उनसे पूछा-‘हे गुरुदेव, आप मेरे आने के बाद निरंतर वार्तालाप करते रहे, किंतु भोजन करते समय एक शब्द भी नहीं कहा। मुझे यह बात कुछ समझ में नहीं आई। आखिर इसका क्या रहस्य है?’  सिद्धार्थ मुस्कराए और बोले-‘भोजन का निर्माण बड़ी कठिनाई से होता है। किसान पहले बीज बोता है, फिर पौधों की रखवाली करता है और तब जाकर अनाज पैदा होता है। फिर घर में परिजन उसे बड़े जतन से खाने योग्य बनाते हैं। इतनी कठिनाई से तैयार भोजन का पूरा आनंद तभी संभव है, जब हम पूर्ण मौन होकर अन्न ग्रहण करें।’ यह सुनकर स्वस्ति उनके समक्ष नतमस्तक हो गया।

— धर्मपाल डोगरा, ‘मिंटू’