क्या भारत में आर्थिक संकट है ?


अक्तूबर 31 को विश्व बैंक की रपट के अनुसार 190 देशों में भारत ‘ईज ऑफ  डूईंग बिजनेस’ में 23 अंक बढ़ता हुआ 100वें स्थान से 77वें पायदान पर पहुंच गया है। खास बात यह है कि 2014 से अभी तक यह 142वें पायेदान से 77वें स्थान पर पहुंच चुका है। यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा रही है। यह खबर भारत सरकार को राहत पहुंचाने वाली है, क्योंकि वर्ष 2018 के प्रारंभ से अभी तक भारतीय रुपया 20 प्रतिशत गिरकर अभी तक 73.54 रुपए प्रति डालर तक पहुंच गया है। उधर पेट्रोल और डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं और पिछले दो महीनों में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में भी बेतहाशा वृद्धि हुई। हालांकि पिछले दिनों से लगातार पेट्रोल डीजल की कीमतों में गिरावट भी दर्ज हुई। देश का चालू खाते पर विदेशी भुगतान घाटा जो वर्ष 2017-18 में जीडीपी के 1.9 प्रतिशत ही था, चालू वित्तीय वर्ष में 2.6 प्रतिशत तक भी पहुंच सकता है। मुंबई शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक अगस्त माह में अपने अधिकतम स्तर 38896.6 से घटकर अक्तूबर 11, 2018 तक मात्र 34000 तक पहुंच गया। इन परिस्थितियों में ऐसा प्रतीत होता है कि भारत पुन: एक बार आर्थिक संकट में आ गया है। लेकिन ऐसी परिस्थितियां भारत के लिए कोई नई बात नहीं है। वर्ष 2011-12 और 2012-13 में चालू खाते पर विदेशी भुगतान घाटा जीडीपी के 4 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गया था। पेट्रोल और डीजल की कीमतें भी काफी ऊंची थीं और रुपया भी इस दौरान कमज़ोर हो रहा था। गौरतलब है कि 28 अगस्त 2013 को भारतीय रुपया उस समय के सबसे अधिक कमजोर स्तर 68.84 रुपए प्रति डालर पर पहुंच गया था।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत पुन: उसी प्रकार के संकट में आ पहुंचा है, जैसे वह 2012-13 में पहुंच गया था। लेकिन यदि देखा जाए तो उस समय की आर्थिक परिस्थितियां वास्तव में गंभीर थी। आज की परिस्थिति उस समय से काफी भिन्न है। पिछले 10 वर्षों में लगभग 8 प्रतिशत औसत जीडीपी ग्रोथ के मुकाबले 2011-12 और 2012-13 में जीडीपी की वृद्धि दर क्रमश: 6.2 प्रतिशत और 4.2 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। जबकि वर्ष 2017-18 में जीडीपी वृद्धि दर 7.3 प्रतिशत रही और 2018-19 के लिए इसके 7.8 प्रतिशत तक पहुंचने की आशा है, ऐसा अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां बता रही हैं। यही नहीं 2012 और 2013 में महंगाई दर भी दो अंक में पहुंच गई थी, जो आज 3.5 प्रतिशत के आसपास है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि हालांकि भारतीय रुपए पर संकट बरकरार है और पेट्रोल और डीजल कीमतें लगातार बढ़ रही हैं, फिर भी भारतीय अर्थव्यवस्था एक मजबूत मुकाम पर है, 
औद्योगिक और कृषि विकास
पिछले 3-4 वर्षों में जीडीपी की वृद्धि दर ही नहीं बढ़ी है, बल्कि हर क्षेत्र में प्रगति स्पष्ट दिखाई दे रही है। गौरतलब है कि वर्ष 2012-13 में औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक 1.1 प्रतिशत बढ़ा, जबकि 2013-14 में वह 0.1 प्रतिशत घट गया। लेकिन उसके बाद उसमें लगातार वृद्धि का रुख दिखाई दे रहा है और ताजा आंकड़ों के अनुसार अगस्त 2017 और अगस्त 2018 के बीच यह 5.2 प्रतिशत बढ़ा। इसी प्रकार कृषि में भी लगातार प्रगति दिखाई दे रही है, चाहे वो कुल खाद्यान्न हो अथवा उसमें दालों का हिस्सा हो, उसमें भी खासी वृद्धि दिखाई दे रही है। खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 2014-15 में  25.3 मिलियन टन से बढ़कर 2017-18 तक 277.5 मिलियन टन तक पहुंच गया है। उधर दालों और तिलहनों के उत्पादन में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। शेष कृषि उत्पाद जैसे कपास, गन्ना इत्यादि का भी उत्पादन अभूतपर्व रूप से बढ़ा है। इसका परिणाम है कि खाद्य मुद्रा स्फीति जो नवंबर 2013 में 14.7 प्रतिशत तक पहुंच गई थी वो जून 2017 तक आते-आते -2.12 प्रतिशत तक आ गई, यानि कीमतें बढ़ने की बजाय घटने लगीं। अभी भी खाद्य मुद्रा स्फीति 3 से 4 प्रतिशत के बीच में बनी हुई है। आंकड़े दिखाते हैं कि पेट्रोल, डीजल की कीमतें बेशक बढ़ रही हैं, लेकिन दाल, अनाज, तेल इत्यादि में बहुत ही कम महंगाई हो रही है। 
राजकोषीय संतुलन 
महंगाई में कमी केवल औद्योगिक और कृषि उत्पादन बढ़ने से ही नहीं, बल्कि राजकोषीय संतुलन से भी संभव हुई है। गौरतलब है कि 2011-12 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5.7 प्रतिशत के बराबर था। उसके मुकाबले 2017-18 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के मात्र 3.5 प्रतिशत तक पहुंच गया है। एक तरफ  तेजी से बढ़ती जीडीपी और दूसरी तरफ  राजकोषीय घाटे में आ रही कमी ने मांग और पूर्ति में एक बेहतर संतुलन स्थापित किया है, जिसके चलते पेट्रोल-डीजल में महंगाई के बावजूद शेष महंगाई थमी हुई है। 
संकट जैसे हालात नहीं
किसी भी अर्थव्यवस्था में संकट तब माना जाता है जब देश में बिजनेस के लिए अनुकूल माहौल नहीं होता, उत्पादन और आमदनी में ठहराव आ जाता है, महंगाई बढ़ती है अथवा विदेशी भुगतान में संकट होता है। दुनिया के कई मुल्क इस समय विदेशी कर्ज के संकट में हैं। लेकिन भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पिछले 4 सालों में लगभग 25 प्रतिशत बढ़ चुके हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विदेशों पर आश्रित हैं और उनकी सरकारें सामाजिक सुरक्षा और नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराने में सफल नहीं हो पा रही हैं, लेकिन भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है। औद्योगिक उत्पादन बढ़ रहा है, देश के खाद्यान्न भंडार भरे हुए हैं और यही नहीं देश भारी मात्रा में कृषि वस्तुओं का निर्यात भी कर रहा है। सरकार का बजट पूरी तरह से नियंत्रण में है और प्रत्यक्ष कर हों अथवा अप्रत्यक्ष कर केन्द्र और राज्य सरकारों का राजस्व लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में हालांकि पिछले कुछ समय से अंतर्राष्ट्रीय कारणों से देश में डालरों की मांग बढ़ने से रुपए पर दबाव आ रहा है और रुपया लगातार कमजोर होता जा रहा है, लेकिन इसमें संकट जैसे कोई हालात नहीं। डालरों की मांग बढ़ने के दो प्रमुख कारण दिखाई देते हैं, पहला कारण है, तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में वृद्धि और दूसरे विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा निवेश की निकासी। लेकिन इन कारणों का असर बहुत लंबे समय तक रहने वाला नहीं है। 
क्या करें कि हालात सुधरे?
क्योंकि यह संकट अल्पकालिक है इसलिए नीति नियंताओं को धैर्य से काम करना होगा। रुपए में गिरावट को रोकने के लिए रिजर्व बैंक विदेशी विनिमय बाजार में हस्तक्षेप करे, यह उचित नीति होगी। यही नहीं विदेशी व्यापार घाटे को भी जल्द पाटने की जरूरत है, उसके लिए गैर-जरूरी वस्तुओं के आयातों को टैरिफ  बढ़ाकर थामा जा सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य देश जो भारत में बाजार पर कब्ज़ा ज़माने के लिए अपना माल यहां डंप कर रहे हैं, उनके खिलाफ  एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाना भी उचित नीति हो सकती है। यही नहीं विदेशी संस्थागत निवेशकों को भी अनुशासित करने की जरूरत है। उनके निवेशों पर ‘लॉक इन पीरियड’ लगाना और उनके द्वारा राशि को देश से ले जाने से रोकने के लिए ‘टोबिन टैक्स’ लगाना भी सही नीति होगी। कई देशों में इस प्रकार के कर की व्यवस्था है, जिसके अनुसार विदेशी निवेशकों पर तब लगाया जाता है, जब वो अपना निवेश बाहर ले जाने के लिए देश की करंसी को डॉलरों में परिवर्तित करते हैं। 
कहा जा सकता है कि दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थ-व्यवस्था जिसमें सभी क्षेत्रों में जीडीपी बढ़ रही है और सभी आर्थिक संकेतक सही दिशा में हैं, डॉलरों की मांग में अल्पकालिक वृद्धि किसी बड़े संकट का संकेत नहीं देती, लेकिन परिस्थितियों का बेहतर ढंग से प्रबंधन भी जरूरी है। 
एसोसिएट प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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