फिर होने लगी बर्फबारी


नवम्बर के दिनों में आप खुशनुमा हवाओं और सोंधी धूप का इंतजार करते हैं, लेकिन धूप की जगह यहां काले बादल घुमड़ने लगे। सोचा हल्की फुहार पड़ेगी, फूल-पत्तियां सरसरा जाएंगी। एक रंग-बिरंगी तितली फूलों की शय्या को त्याग कर देर से वहां मंडराते काले भंवरों को कह देगी, ‘गुड मार्निंग’ अजी भंवरों का दिल तो ब़ाग-ब़ाग हो जाएगा। कितने दिनों से उन्हें इस अभिवादन की तलाश थी। न जाने कितनी देर उन्होंने इन फूल द्वारों को थपथपाया, किसी ने उनके अस्तित्व को पहचान नहीं दी, गुड़मार्निंग कहना तो बहुत दूर की बात है। सब काले बुझक्कड़ भंवरों की ज़िन्दगी में ऐसा ही होता है। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं या हवाई मीनारों में बंद बड़े साहबों की आंखों में वे अपने लिए पहचान की परछाइयां तलाशते रहते हैं। लेकिन वहां परछाइयां तो क्या, दरवाज़ों की दुत्कार लिखी रहती है। बड़े साहबों के कुत्ते खूंखार डायानासोर जैसे हैं, लगता है खीझ कर वे उन्हें ही हम पर न दूल दें।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अचानक बदली हवाओं की तरह चारों दिशाओं में चुनाव की तुरहियां फूंकी जाने लगीं। वे फूल जिनकी खुशबू भी हमारी गन्दी गलियों का रास्ता भूल गई थी, वह अचानक नेताओं की आंखों में आत्मीयता की पहचान बन कर, या अपनेपन की खुशबू बन कर हमसे गलबहियां करने को आतुर हो गईं। अब इन तितलियों का क्या है जी, नहीं पहचानती तो नहीं पहचानती। अब पहचानने लगी हैं तो जैसे कोर्निश बजा कर ही हमें अभिभूत कर देंगी ‘गुडमार्निंग।’
जी हां, इस चुनावी सवेर से तो हम अभिभूत हो गये। उम्मीद बादल घिरने के बाद हल्की फुहार की थी, यह लो जैसे जम कर रुई के गोलों-सी बर्फ बरसने लगी। कहां तो, चातक को एक बूंद ओस की चाह थी, और यहां तो ओस का सागर ही उसकी प्यास बुझाने चला आया। इस सागर में वायदों के मस्तूल लहराने लगे। बारिश का पानी होता, तो हम उनके वायदों को कागज़ की कश्तियां बना कर उनमें चला लेते, लेकिन यह तो बर्फबारी थी, बे-मौसमी बर्फबारी। हमारा कोई घर आंगन था नहीं। बरसों से महानगर की इस सड़क का फुटपाथ ही हमारा रैन-बसेरा है। हमने देखा बर्फबारी के नाम पर इस फुटपाथ पर जुमलों की सफेद चादर बिछ गई थी।
इस चादर पर नेताओं के भाषण रेत के घरौंदों से अपने सपने सजाने लगे थे। ‘कांपती हुई उंगलियों को ताकत दो, हम उन्हें काम देंगे। अपनी पीठ से सटती हुई अंतड़ियों को साध लो, हम इन्हें गुदगदी नर्म रोटियों से भर देंगे। अपनी मोतियबिंद से भरी हुई आंखों का कीचड़ झटक दो, हमने इन्हें नया सपनों का संसार भेंट करना है।’
नेता जी धारा प्रवाह बोल रहे थे। कौन कहता है कि वह पिछले पांच बरसों में हमारे चेहरों की पहचान भूल गए। हमारी गलियों में ऊबड़-खाबड़ ढंग से चलने के स्थान पर इन सब बरसों में उन्हें विदेशी अजायब घर भरमाते रहे, जहां अनजान चेहरों की भीड़ उनका नाम ले-ले कर जय हो चिल्लाती थी। तब उन्हें लगता था। हमारा तो कभी यहां प्रवेश निषेध नहीं रहा। देखो अब हमारी हर यात्रा में हमारे स्वागत के लिए कितने तोरण द्वार सजाये जाते हैं।
कभी विश्व विजय के लिए सिकंदर महान निकले थे। विजय श्री उनका वरण करती तब भी उन्हें इतनी खुशी नहीं मिलती जितनी इन्हें अपनी इन विदेश विजय यात्राओं से मिलती थी।  लेकिन पलक झपकते ही यात्राओं का वह मौसम गुज़रा। अब तो अपने देश का गर्दोगुबार छांटना है, वायदों की रोशनी से यहां सड़कों के फुटपाथों, अंधेरी रूपरैलो से सदियों से ठिठका हुआ पिछड़ापन छिन्न-भिन्न करना है। अब नेता जी की चुनाव यात्राएं चल रही हैं। खुशनुमा माहौल में तितलियां लौट रही हैं, लेकिन सपनों के टूटने से जो घुटन भरी तासीर होती है, उसमें यह बर्फबारी कैसे लौट आई? देखते ही देखते यह तो तेज हो गई। फुटपाथ पर सिकुड़े हुए लोग सोचते हैं, कहीं यह बर्फीला तूफान न बन जाए? रोज़गार दफ्तरों के बंद दरवाज़े कब खुलेंगे? वह घबरा कर उनमें अपना सिर छिपा लेना चाहते हैं। बाज़ारों ने काले बुर्के ओढ़ रखे हैं। इनमें निकली चीज़ें मिलावटी पहले ही थी, अब उनमें क्षितिजों से उतरे महंगाई के दावानल भड़कने लगे। बाहर बर्फ तेजी से गिर रही है। दिलासाओं की भीड़ लगी है। जुमलों की बरसात सजी है, एक-दूसरे की कुर्सी खींचने की फिराक में उन लोगों ने यहां कितनी फिसलन पैदा कर दी? लेकिन वे ऊंची अटारियों से उतर कर आये कोई पर्यटक तो नहीं, जो इस बर्फबारी को अजूबा मान कर इनका ‘आनंद लें। अपने आयातित कैमरे या स्मार्ट फोन निकाले, और इन नज़ारों को उनमें कैद कर ले।
वे तो सड़क पर बैठे लोग हैं। कतार में खड़े आखिरी बाशिंदे। चुनाव नगाड़े बजते हैं, तब ऐसी ही बर्फबारी उनके असंतोष की आग बुझाती है। वायदों की नई तितलियां उन्हें ‘हलो’ कहती हैं। माहौल में उनके स्वागत और अभिवादन के तोरण द्वार फिर सजने लगे। विदेशी पर्यटकों ने तालियां पीटी, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र लेकिन उन्हें नहीं पता, इस बार वे उनके साथ तालियां बजा पाएंगे या नहीं।