श्रीलंका में महात्मा बुद्ध के दांत के दर्शन

श्रीलंका का बौद्ध धर्म से गहरा संबंध है, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है, लेकिन यह धर्म श्रीलंका के कण कण में बसा है, इसका अहसास हाल की इस द्वीप-राष्ट्र की यात्रा पर ही हुआ। यद्यपि हमें श्रीलंका के दक्षिणी हिस्से में ही अपनी यात्रा को फोकस करना था, जिसमें अनुराधापुर शामिल नहीं था, जहां पवित्र बौद्धि वृक्ष का मूल पौधा बौद्धगया से लाकर लगभग 2000 वर्ष पूर्व सम्राट अशोक के बेटे व पुत्री ने लगाया था। श्रीलंका में हम जहां भी गए, हर जगह गौतम बुद्ध की प्रतिमाएं नजर आयीं। कोलम्बो में 300 वर्ष पुराने अशोकारमइया मंदिर में विशाल बुद्ध प्रतिमा है जो लेटे हुए अवस्था में है, आधी जागी हुई और आधी सोयी हुई। देखने के बाद इस प्रतिमा को देखकर वह व्यक्तित्व खुद ब खुद सामने आ जाता है जो लगभग 2500 वर्ष पहले इस पृथ्वी पर आया था और आज भी अनेक देशों में, जिनमें वह गए भी नहीं थे, अपना शक्तिशाली असर छोड़े हुए हैं। वास्तव में यह जागृति का पल था।  श्रीलंका के वातावरण के कण-कण में बुद्ध की भावना विद्यमान है जो अपने प्रतीकात्मक स्मारकों के कारण हमें वापस उस देश में ले जाती है, जहां बुद्ध का जन्म हुआ था। इसका अनुभव करने के लिए आपको सिर्फ  अपनी आंखें बंद करनी होती हैं और कपिलवस्तु की सड़कें आपके नेत्रों में सजीव हो उठती हैं... जहां राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में अपने सारथी चन्ना के साथ गौतम बुद्ध ने कभी रथ चलाया होगा और फिर दशकों बाद एक भिक्षु के गेरुवा वस्त्रों में भीख का पात्र लिए हुए नंगे पैर चले होंगे, जागृत शाक्यमुनि और साथी भिक्षुओं के साथ।  उन पलों को याद करते हुए समय व स्थान अपने आप लुप्त हो जाते हैं और हम अपने आपको सारनाथ में पाते हैं जहां जागृत अवस्था में बुद्ध ने पहली बार समय के पहिये को उलट दिया था और मानवता को सही दिशा देने के लिए अपना  उपदेश दिया था। इन्हीं पलों को अंग्रेजी के कवि जॉर्ज टी.एस. ईलियट ने अपनी कविता ‘द वेस्ट लैंड’ में शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है, विशेषकर अग्नि उपदेश को। इतिहास बताता है कि महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद जब उनके शरीर का दाह संस्कार किया गया तो उनके एक ऊपरी दांत को बचा लिया गया था, जो कलिंग में लगभग 800 वर्ष तक संग्रहित रखा रहा। लेकिन जब कुछ पड़ोसी राज्यों ने महात्मा बुद्ध के इस दांत को छीनने का प्रयास किया तो राजा गुहासिवा ने अपनी बेटी हेमामाला और दामाद राजकुमार दंथा से कहा कि वे इस दांत को लंकापट्टन के राजा के पास ले जाएं, जिनसे उनके अच्छे संबंध हैं और वह इस दांत को सुरक्षित रखेंगे। राजकुमारी हेमामाला ने दांत को अपने बालों में छुपाया और उसे सुरक्षित श्रीलंका ले आयी थीं।  कैंडी के मंदिर का दर्शन एक अनूठा अनुभव है। इस अनुभव को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। मंदिर का वातावरण दया व भक्ति से ऐसा भरा हुआ है कि जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गए हों। लगभग सभी आयु वर्ग व देश विदेश के तीर्थयात्री इस मंदिर में आते हैं।  महात्मा बुद्ध के पवित्र दांत का दर्शन करने के लिए हम अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। हमारे गाइड ने हमें बताया कि किस तरह यह दांत दुश्मनों के हाथ से बचाकर यहां तक पहुंचाया गया था। जिन दो भिक्षुओं की तस्वीरें और मूर्तियां बाहर लगी हुई हैं, वे दोनों ही सुरक्षित इस दांत को यहां तक लेकर आए थे, जिसका हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं।  एक चमचमाती टोकरी में बहुमूल्य दांत रखा हुआ था और आसपास दीप जल रहे थे व फूल रखे हुए थे। पवित्र सुगंध के बीच मंत्रों का उच्चारण, संगीत व ढोलक की थाप... सब कुछ आपको एक अलग दुनिया में ले जाने के लिए काफी था। गेरुवे रंग के कपड़े पहने कुछ भिक्षु सुनहरी कलश को लेकर जा रहे थे जिसमें दांत की लकड़ी की प्रति कॉपी मौजूद थी। वह न केवल हमारे लिए रुके बल्कि उन्होंने हमें तस्वीरें भी लेने दीं और दांत के दर्शन भी करने दिए। उन भिक्षुओं के साथ हमनें कुछ पल गुजारे। मंदिर का वैभव सचमुच अद्वितीय था। मंदिर की शिल्पकला देखने योग्य थी। तभी हमें बुद्ध का प्रार्थनारत हाथ दिखायी दिया। बुद्ध का हाथ वास्तव में चीन व हिमालय में पाया जाने वाला सिटरस फ ल है जो अपनी मनमोहक सुगंध के लिए अधिक विख्यात है और इस तरह से बना होता है जैसे हाथ की उंगलियां प्रार्थना की मुद्रा में जुड़ी हुई हों। यह फ ल अनेक बौद्ध मंदिरों में अर्पित किया जाता है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 
—समीर चौधरी