मुकद्दमों के बोझ से झुकी अदालतों की पीठ

लोकतंत्र के चार स्तंभों में से एक न्यायपालिका काफी दबाव में है। अदालतों में मुकद्दमों का अंबार लगा हुआ है। देश के सर्वोच्च न्यायालय से लेकर विभिन्न अदालतों में मुकद्दमों का बोझ इस कदर हावी है कि न्याय की रफ्तार धीमी से धीमी होती जा रही है। अदालतों पर बढ़ते बोझ की समस्या की तस्वीर आंकड़ों के साथ पेश की जाए तो आम आदमी न्याय की आस ही छोड़ बैठेगा। आंकड़ों के हवालों से बात की जाए तो देश की विभिन्न अदालतों में अभी जितने मुकद्दमे लंबित हैं, सिर्फ  उनकी ही ढंग से सुनवाई की जाए, तो उनका निपटारा होने में लगभग 25 सालों का समय लगेगा। आसानी से समझा जा सकता है कि अगले 25 सालों में अदालतों में और कितने नए मुकद्दमे आएंगे। इस तरह से जो लंबित मुकद्दमे हैं, उन्हें निपटाने में 25 वर्ष की जगह और भी लंबा समय लग सकता है। साफ  है कि एक ओर तो न्यायपालिका पर मुकद्दमों का बोझ लदा है, दूसरी ओर उसके जरूरत भर न्यायाधीश भी नहीं हैं। देश की न्याय प्रक्रिया को यदि दुरुस्त करना है तो एक साथ दो मोर्चों पर काम करने की ज़रूरत है। देश की सर्वोच्च अदालत में करीब 54,013 मुकदमे लंबित हैं। वहीं 3.32 करोड़ मामले देश की निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। इसमें 2.85 करोड़ से भी ज्यादा मुकद्दमे निचली अदालतों में हैं जबकि उच्च न्यायालयों में 47.64 लाख से अधिक निपटारे की बाट जोह रहे हैं। सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश में लंबित हैं जिनमें निचली अदालतों में 68,51,292 हैं और इलाहाबाद हाईकोर्ट में 7,20,440 मुकद्दमे लटके हैं। हालांकि हाईकोर्ट में लंबित मामलों की फेरहिस्त में राजस्थान हाईकोर्ट ने इलाहाबाद को भी पछाड़ रखा हैं जहां 7,28,030 मुकद्दमे हैं। दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में इतनी तादाद में मुकद्दमे लंबित नहीं हैं। देश की विभिन्न अदालतों में लंबित लगभग सवा तीन करोड़ मुकद्दमों में लगभग 57 फीसदी मुकदमे फौजदारी मामलों के हैं, जबकि दीवानी व अन्य मामले की संख्या लगभग 43 फीसदी है। इसमें हैरान करने वाली जो बात है, वह यह कि सवा तीन करोड़ से ज्यादा मुकद्दमों में 46 फीसदी यानी करीब एक करोड़ सैंतालीस लाख मुकद्दमे तो विभिन्न सरकारों की वजह से हैं। केंद्र और राज्य की सरकारों ने इतनी याचिकाएं दाखिल की हुई हैं कि अदालत की बड़ी ताकत उन याचिकाओं के निपटारे में ही खराब हो रही है। यदि सरकार छोटे-छोटे मसलों पर मुकद्दमा दायर करना बंद कर दे, तो सिर्फ  इतना से ही न्यायपालिका के बोझ में काफी कमी आ सकती है। देशभर के 24 उच्च न्यायालयों में 10 साल से ज्यादा पुराने 21.61 फीसदी मामले हैं जबकि पांच साल से ज्यादा समय से 22.31 फीसदी मुकदमे लटके हुए हैं। निचली अदालतों में यह आंकड़ा बहुत कम है, जहां 10 साल से पुराने महज 8.30 फीसदी हैं और 5 साल से ज्यादा समय के 16.12 फीसदी मामले लंबित हैं। पिछले माह उच्च न्यायालयों ने दस साल से ज्यादा पुराने दशमलव 15 फीसदी मामले निपटाए हैं। हालांकि निचली अदालतों का प्रदर्शन पुराने मुकद्दमों के निपटारे में बेहतर हैं, जहां कुल मामलों में 46.89 फीसदी दो साल से कम समय के हैं और दो साल से अधिक पर पांच साल से कम समय के 28.69 फीसदी मुकद्दमे लंबित हैं। पांच साल अधिक पुराने 16.12 फीसदी मामले हैं जबकि दस साल से ज्यादा समय से 8.30 फीसदी मामले हैं।  देश की विभिन्न अदालतों द्वारा इन सभी मामलों का जल्द निपटारा करना पहाड़ को हिलाने जैसी चुनौती का सामना करने से कम नहीं है। भारत में न्यायपालिका के सामने मुकद्दमों का बोझ कोई नई समस्या नहीं है। आज़ादी के बाद से ही अदालतों और जजों की संख्या आबादी के बढ़ते अनुपात के मुताबिक कभी भी कदमताल नहीं कर पाई। इस वजह से न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के मुताबिक न्यायपालिका में भी मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन कायम नहीं हो सका। विधि आयोग ने 1987 में कहा था कि दस लाख लोगों पर कम से कम पचास न्यायाधीश होने चाहिएं लेकिन आज भी दस लाख लोगों पर न्यायाधीशों की संख्या पंद्रह से बीस के आस-पास है। न्यायाधीशों के रिक्त पड़े पदों की बात करें तो सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के कुल 31 स्वीकृत पदों में से 3 पद रिक्त हैं। एक अनुमान के अनुसार इस समय अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों के 5,400 से अधिक पद रिक्त हैं जबकि देश के 24 उच्च न्यायालयों में 1221 स्वीकृत पदों में 330 पद खाली हैं। कुल 891 न्यायाधीश अपनी सेवाएं उच्च न्यायालयों में दे रहे हैं। इस समय 4180 पदों पर नियुक्तियों की प्रक्रिया विभिन्न चरणों में है। निचली अदालतों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है जहां करीब 1360 पद रिक्त हैं जबकि मध्य प्रदेश में रिक्त पदों की संख्या 706 और बिहार में 684 है। गुजरात और दिल्ली में भी न्यायाधीशों के 380 और 281 पद रिक्त हैं। विशेषज्ञों के अनुसार अदालतों में मुकद्दमों के निपटारे में देरी और मुकद्दमों की संख्या में लगातार इजाफा होने का जिम्मेदार किसी एक को ठहराना गलत है। अगर, सही ढंग से कहा जाए तो किसी भी मामले में देरी का कारण शुरू से लेकर अंत तक सभी होते हैं। मसलन कभी पुलिस चार्जशीट दाखिल करने में देरी करती है तो कभी गवाहों तक समन नहीं पहुंचते, कभी जज का तबादला हो जाता है तो कभी बचाव पक्ष के वकील के पास समय की कमी के कारण केस की तारीख आगे बढ़ा दी जाती है और कभी जज के पास मुकद्दमों की अधिक संख्या होने के कारण मामलों को अगली तारीख पर टाल दिया जाता है। ऐसे में न्याय की रफ्तार में तेजी लाना पहाड़ को हिलाने जैसी चुनौती से कम नहीं है। पूरा सिस्टम सुधारने पर ही न्याय प्रक्रिया में तेजी आना संभव है। समय के साथ व्यवस्था के तीनों प्रमुख स्तंभों के बीच बढ़ते टकराव ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया। सवाल यह भी है कि देश की अदालतें मुकद्दमों के बोझ तले भला दबी क्यों हैं? असल में तमाम विसंगतियों के बाद भी न्यायालयीन प्रक्रिया के प्रति आम लोगों का बढ़ता विश्वास कुछ इस वजह से भी है कि आम लोगों में विश्वास बहाली के लिये जो कार्य कार्यपालिका को करना चाहिये था, न्यायालय को करना पड़ा है। पिछले कुछ वर्षों में नेताओं की स्वेच्छाचारिता और गुंडों से उनकी सांठ-गांठ पर चुनाव आयोग और न्यायालय ने मिलकर लगाम कसने की जो सार्थक कोशिश की है, उससे भी आम लोगों का उस पर भरोसा बढ़ा है।