करतारपुर गलियारे के लिए दोनों सरकारें बनीं प्रशंसा की पात्र

साहिब श्री गुरु नानक देव जी की कर्म भूमि और उनके ज्योति जोत समाने के स्थल गुरुद्वारा दरबार साहिब, करतारपुर साहिब के दर्शनों के लिए बिना वीज़ा अनुमति मिलने और इस उद्देश्य के लिए गलियारा बनाए जाने के फैसले के कारण दुनिया भर के सिखों में खुशी की लहर है। यह उपलब्धि सिखों द्वारा दशकों से की जा रही अरदास की पूर्णतया का एक हिस्सा है। बेशक इस गलियारे के लिए तत्काल स्रोत और कारण पंजाब के स्थानीय निकाय मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ही बने हैं और उनकी पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ निजी दोस्ती रंग लाई है। परन्तु इस मामले में स्वर्गीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रयासों को भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता। एक बार तो उनके प्रयासों के कारण वर्ष 2000 में तत्कालीन पाकिस्तान सरकार ने गुरुद्वारा करतारपुर साहिब के बिना वीज़ा दर्शनों की अनुमति देने के लिए भी सहमति व्यक्त कर दी थी। परन्तु हिन्द-पाक संबंधों में आए तनाव ने मामला पुन: लटका दिया। अब जब दोनों देशों ने बाकायदा तौर पर इस गलियारे की स्वीकृति दे दी है और निर्माण के लिए फंड भी स्वीकृत कर दिए हैं। भारत की तरफ से भारत के उप-राष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू और पाकिस्तान की तरफ से प्रधानमंत्री इमरान खान ने इस गलियारे का निर्माण करने के लिए नींव पत्थर भी रख दिए और भारत के सड़क निर्माण मंत्री नितिन गडकरी ने यह प्रोजैक्ट चार-साढ़े चार महीने में पूरा कर देने का आश्वासन भी दिया है, तो अब सिख समुदाय की यही अरदास है कि ऐसा कुछ न हो कि इसमें कोई रुकावट पैदा हो जाए। चाहे सच्चाई यही है कि इस तरह की कोई सम्भावना नज़र नहीं आती। क्योंकि दोनों देशों  की सरकारों के लिए अब इससे पीछे हटना आसान नहीं होगा, परन्तु जिस तरह की बहस भारतीय मीडिया खास तौर पर भारतीय टी.वी. चैनलों पर हो रही उससे डर लगता है। जैसे भारतीय मीडिया इस गलियारे को पाकिस्तान की खालिस्तान की मुहिम को उत्साह देने की साज़िश से जोड़ कर दिखा रहा है। जिस तरह के आरोप-प्रत्यारोप इन बहसों में एक-दूसरे के खिलाफ लगाए जा रहे हैं, चाहे उनका आधिकारिक तौर पर कोई मूल्य नहीं। यह भी समझा जा सकता है कि इस तरह की बातें राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता चुनावों में फायदा उठाने के लिए कर रहे होंगे। परन्तु फिर भी डर अवश्य लगता है कि भारत और पाकिस्तान के आम लोगों और खास तौर पर भाईचारे के दुश्मन गुट कोई ऐसा कृत्य न करवा दें कि करतारपुर का गलियारा बनने और खुलने से पहले ही भारत-पाकिस्तान संबंधों में कोई नई कशीदगी आ जाए। वैसे हम समझते हैं कि यह गलियारा भारत-पाकिस्तान की दोस्ती और अमन के रास्ते पर चलने के लिए एक सार्थक आधार बन सकता है। सिख समुदाय के महत्त्व का एहसास गुरुद्वारा दरबार साहिब करतारपुर के लिए गलियारे की स्वीकृति और वह भी किसी दूसरे देश द्वारा बिना वीज़ा आने की अनुमति देना सचमुच ही सिख समुदाय की एक अहम उपलब्धि है। वास्तव में यह अनुमति सिख समुदाय के महत्त्व को मान्यता देने का एहसास करवाती है। बेशक कोई कुछ भी कहे कि पाकिस्तान सरकार की ओर से गलियारे की अनुमति देने की तैयारियों की भनक लगते ही भारत सरकार को कैबिनेट मीटिंग बुलाकर सहमति देनी पड़ी। बेशक यह बात कहने वाले यह भी कहते हैं कि यही कारण है कि भारत की ओर से इस गलियारे के लिए किया समारोह जल्दबाज़ी और ज्यादा तैयारी के बिना ही किया गया। यह उतना प्रभावशाली भी नहीं बन सका, जितना पाकिस्तान की ओर से करतारपुर साहिब में किया गया समारोह सम्पन्न हुआ। परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि पाकिस्तान अकेला इस गलियारे को मुकम्मल नहीं कर सकता था, इस गलियारे के लिए अनुमति देने और भारतीय हिस्से के निर्माण का खर्च करने के लिए भारत की नरेन्द्र मोदी सरकार की प्रशंसा करनी बनती है कि उन्होंने अपने देश के एक महत्त्वपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय की भावनाओं का ख्याल रखा और एक सार्थक दृष्टिकोण अपनाया है। हां, इस उद्देश्य के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और पाकिस्तान सरकार का भी धन्यवाद करना बनता है। सिद्धू की प्रशंसा हालांकि भारत के राष्ट्रीय मीडिया खास तौर पर टी.वी. मीडिया में अभी भी पंजाब के स्थानीय निकाय मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के विरोध में हवा बनाई जा रही है और कई राजनीतिक विरोधी उन पर देश विरोधी होने का आरोप भी लगा रहे हैं। अभी भी उनकी पाकिस्तान सेना के प्रमुख कमर  जावेद बाजवा के साथ डाली गई जफ्फी पर किन्तु-परन्तु किया जा रहा है। यहां तक कि पंजाब के मुख्यमंत्री कै. अमरेन्द्र सिंह का रवैया भी सिद्धू के पाकिस्तान जाने के विपरीत ही नज़र आता है, परन्तु सच्चाई यही है कि इस मामले में सिद्धू की भारत और पाकिस्तान के पंजाबियों में ही नहीं अपितु दुनिया भर में बसते पंजाबियों, नानक नाम लेवा, अलग-अलग समुदायों के लोगों और सिखों में प्रशंसा हो रही है। वास्तव में सिर्फ तीन महीनों के समय में उनके द्वारा कही बात पर आपस में तनाव के माहौल में गुज़र रहे होने के बावजूद दोनों देशों द्वारा मोहर लग जाना उनकी बड़ी उपलब्धि ही कही जाएगी। नवजोत सिंह सिद्धू दुनिया भर में फैले सिखों और पंजाबियों में एक प्रतीक बन कर उभरे हैं और एक उम्मीद जाग रही है कि शायद 2019 के चुनावों के बाद जब दोनों देशों के राजनीतिक दलों और सरकार को कोई चुनाव जीतने के लिए दूसरे देश के खिलाफ माहौल बनाने की ज़रूरत नहीं रहेगी, तो भारत-पाक संबंधों में एक नई गर्मजोशी देखने को मिल सकेगी। वैसे राजनीतिक सूत्रों में एक नई चर्चा भी शुरू हो गई है कि सिद्धू की पंजाबियों में बनी नई शान के कारण कांग्रेस हाईकमान उनको पंजाब से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए भी कह सकती है। परन्तु कुछ क्षेत्र उनके देश भर में स्टार प्रचारक होने के कारण इस सम्भावना को रद्द करते हैं। शिरोमणि कमेटी अध्यक्ष के साथ घटनाक्रम वास्तव में जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहरा के बाद शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्षों का महत्त्व लगातार कम होता ही गया है। हालांकि इसका ज़िम्मेदार भी अकाली दल बादल है और इसका राजनीतिक तथा धार्मिक क्षेत्र में बड़ा नुक्सान भी अकाली दल बादल को ही हुआ है। जत्थेदार टोहरा के बाद बने लगभग सभी अध्यक्षों को ही किसी न किसी सीमा तक बादल परिवार की कठपुतली माना जाता रहा है। हालांकि यह सफेद दिन जैसा सत्य है कि यदि शिरोमणि कमेटी अध्यक्ष धार्मिक तौर पर अकाली दल का बचाव करने में सक्षम होते तो अकाली दल बादल की जो स्थिति आज है वह न होती। परन्तु हैरानी की बात है कि अकाली दल बादल शिरोमणि कमेटी के अध्यक्ष की स्थिति मजबूत करने की बजाए और खराब होने की भी परवाह नहीं कर रहा। गुरुद्वारा दरबार साहिब करतारपुर साहिब के गलियारे के दोनों कार्यक्रमों में शिरोमणि कमेटी के अध्यक्ष भाई गोबिंद सिंह लौंगोवाल को बनता महत्त्व नहीं दिया गया। यह बहुत चर्चा का विषय है। खास तौर पर शिरोमणि कमेटी को जिस तरह उपेक्षित किया गया और जिस तरह का रवैया केन्द्रीय मंत्री श्रीमती हरसिमरत कौर ने स्वयं अपनाया उससे किसी समय सिखों की संसद मानी जाती रही संस्था की प्रतिष्ठता को और बड़ी चोट पहुंची है। एक तो उनको बोलने का समय नहीं दिया गया, ऊपर से जिस तरह नींव पत्थर रखने के समय अकाली दल के अध्यक्ष की पत्नी और केन्द्रीय मंत्री श्रीमती हरसिमरत कौर अति उत्साह में सारी रस्में निभाती रहीं और शिरोमणि कमेटी के अध्यक्ष भाई लौंगोवाल सरेआम उनको सामान पकड़ा पकड़ा कर उनके एक सहायक जैसी भूमिका निभाते रहे, उसने निजी तौर पर तो भाई लौंगोवाल की छवि को नुक्सान पहुंचाया ही है, इससे सिखों की सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था की प्रतिष्ठता को भी ठेस पहुंची है। 

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