कांग्रेस के लिए अभी दूर है दिल्ली

अमूमन परिणामों को किसी भी परीक्षा का अंत माना जाता है, परन्तु मंगलवार अर्थात् 11 दिसम्बर को आए पांच राज्यों के परिणामों को अगली चुनावी जंग की शुरुआत भी कहा जा सकता है। शुरुआत भी ऐसी जिसके रुझानों से परिणाम बनने के रास्ते में दोनों तरफ (भाजपा और कांग्रेस) कई बार उम्मीद और निराशा के भंवरों में गोते लगाते नज़र आए। जीत का इंतजार कर रही कांग्रेस पार्टी जल्दी में कोई भी प्रतिक्रिया नहीं देना चाहती थी। इसलिए प्रैस कांफ्रैंस द्वारा यह संदेश पहुंचाने के समय में भी तीन बार बदलाव करना पड़ा। परन्तु अंतत: मध्य प्रदेश में धुंधली तस्वीर के साथ की गई प्रैस कांफ्रैंस में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी आत्मविश्वास से भरपूर नज़र आए। इन परिणामों ने पार्टी के भीतर से और बाहर से राहुल के नेतृत्व पर लग रहे किन्तु-परन्तु को एक पूर्ण विराम लगा दिया। यह आत्म-विश्वास सिर्फ पार्टी हाईकमान के ही नहीं अपितु पार्टी नेताओं के चेहरे पर भी साफ झलक रहा था। एक कांग्रेसी नेता ने इन परिणामों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे रुकी हुई सांसें पुन: चलने लग गई हों। ऐसे एहसासों से भरी कांग्रेस के लिए मंगलवार का दिन मिज़ोरम में मिली हार पर चर्चा करने का नहीं था। शायद यही कारण था कि परम्परा से थोड़ी लम्बी चली राहुल की प्रैस कांफ्रैंस में मिज़ोरम का ज़िक्र तक नहीं किया गया। न ही वह दिन तेलंगाना में कांग्रेस-टी.डी.पी. गठबंधन के नाकाम होने पर खेद जताने का था। हालांकि राहुल गांधी के मुख से इसकी टीस यह कहते हुए अवश्य बाहर निकली कि तेलंगाना में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी। मंगलवार का दिन छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश पर चर्चा करने का था। बिल्कुल उसी तरह जब उत्तर प्रदेश और पंजाब के साथ-साथ आए परिणामों वाले दिन सिर्फ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की करारी शिकस्त की अधिक चर्चा थी, जबकि पंजाब की जीत का ज़िक्र काफी मद्धम रहा। ़खैर, मंगलवार को कमोबेश चर्चा सिर्फ इन राज्यों की हुई। कांग्रेस और भाजपा दोनों के संदर्भ में। एक वाक्य में कहा गया कि कांग्रेस ने तीन राज्यों से भाजपा की सत्ता छीन ली। विधानसभा चुनावों के इन परिणामों को राष्ट्रीय राजनीति का चश्मा लगाकर भी देखा गया। नि:संदेह प्रांतीय चुनावों के इन परिणामों ने कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर की अगली भूमिका में पुन: लाकर खड़ा कर दिया। आपसी मतभेदों और स्पष्ट नेतृत्व की कमी में बनता, बिगड़ता महा-गठबंधन, जिसमें कई पार्टियां दरक रही कांग्रेस को स्पष्ट तौर पर अपना नेता मानने से संकोच कर रही थीं, उनका रवैया बदलने की सम्भावना है। जिससे कांग्रेस की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाएगी। ़गैर-ज़िम्मेदाराना पप्पू के तौर पर प्रचारित की गई राहुल गांधी की छवि इन परिणामों ने बदल दी है। चाहे राहुल का कद-बुत्त अभी भी मोदी जितना नहीं माना जा रहा परन्तु गत लगभग तीन महीनों से चुनावों वाले राज्यों में 80 से अधिक रैलियां करने और परिणाम देने के बाद एक संजीदा राजनीतिज्ञ का दर्जा तो राहुल को हासिल हो ही गया है। जीत में शेष रही कसर मंगलवार अर्थात् परिणामों वाले दिन के बाद अब समय उन सभी मुद्दों पर विचार करने का है, जो उस दिन खंगाले नहीं गए। छत्तीसगढ़ के अलावा दोनों राज्यों में मिली जीत कुछ कसर तो शेष रह ही गई। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की तीन बार से काबिज़ सरकार को हटाने के लिए कांग्रेस को अपना पूरा पसीना बहाना पड़ा। वह भी उस समय जब राज्य में किसानों की आहों की आवाज़ दिल्ली तक पहुंच गई थी। किसान पक्षीय नेता और स्वराज इंडिया के प्रधान योगेन्द्र यादव 2015 में मंदसौर में किसानों पर हुए हमले जिसमें 6 किसानों की मौत भी हो गई थी, के बाद लगातार किसानों के पक्ष में न सिर्फ आवाज़ उठा रहे हैं, अपितु पिछले महीने 200 से अधिक किसान संगठनों को एक मंच पर लाकर दिल्ली में दो दिनों के लिए उन्होंने सरकार विरोधी मोर्चा भी निकाला था। कृषि संकट और सरकार विरोधी लहर को भी विरोधी गुट कांग्रेस अपने पक्ष में ‘पूरी’ तरह भुगताने में सफल नहीं हो सकी और 230 सीटों में से 140 सीटों का दावा करने वाली कांग्रेस की सीटों की संख्या 114 पर सीमित हो गई और सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए आज़ाद और छोटी पार्टियों का सहारा लेना पड़ा। जबकि सरकार विरोधी लहर के बावजूद शिवराज चौहान ने 108 सीटें हासिल कीं। आसान दिखने वाली जीत के लिए कांग्रेस को अपनी धड़कनें रोक कर धीरे-धीरे सामने आ रहे परिणामों का लम्बा इंतजार करने के बाद भी 116 का बहुमत का आंकड़ा हासिल करने के लिए कुछ जोड़-तोड़ तो करना ही पड़ा। राजस्थान की जीत को भी आसान जीत नहीं कहा जा सकता। जनता ने पारम्परिक पांच वर्षों के बाद सरकार का दस्तूर कायम रखते हुए सत्ता की चाबी तो कांग्रेस के सुपुर्द कर दी, परन्तु वह मुश्किल से ही बहुमत के 100 के आंकड़े तक पहुंच सकी। अपने दम पर 113 से अधिक सीटें जीतने का दावा करने वाली पार्टी को लगातार नीचे-ऊपर हो रहे आंकड़ों के कारण हम ख्याली पार्टियों को भी साथ आने का निमंत्रण देना पड़ा। जबकि शुरू से ही कांग्रेस ने राजस्थान की ‘पक्की जीत’ की सम्भावनाओं के कारण किसी के साथ भी गठबंधन करने से इन्कार कर दिया था। 40 विधानसभा सीटों वाला मिज़ोरम कांग्रेस के हाथों जाने वाले अंतिम उत्तर पूर्वी राज्य है। किसी समय कांग्रेस का गढ़ माने जाते उत्तर पूर्वी राज्यों से अब कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो चुका है, जिसके कारण और हल भी शीघ्र कांग्रेस को तलाश करने पड़ेंगे। इसके साथ ही गठबंधन के राजनीतिक जमा-घटाव को नए सिरे से बनाने की ज़रूरत है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बाद तेलंगाना दूसरा ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस का गठबंधन बुरी तरह नाकाम रहा है। कांग्रेस-टी.डी.पी. की सहयोगी 19 सीटों पर सिमट कर रह गई और टी.आर.एस. को पुन: शानदार सफलता मिली। राहुल गांधी ने परिणामों के बाद की प्रैस कांफ्रैंस में गठबंधन बल्कि महा-गठबंधन के प्रति गहरी उम्मीद प्रकट की थी, परन्तु अब मौकापरस्त गठबंधन जनता को गंवारा नहीं लगता।  यहां एक तथ्य और विचारणीय है कि विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं। यह परिणाम मोदी ब्रांड के खत्म होने के संकेत नहीं हैं। मोदी-शाह की जोड़ी अपनी गुप्त रणनीति के लिए जानी जाती है। अंतिम समय पर विपरीत माहौल को अपने पक्ष में तबदील करने में यह जोड़ी माहिर मानी जाती है। उदाहरण के तौर पर नोटबंदी के हुए उत्तर प्रदेश के चुनावों में भाजपा की जीत को एक हैरानी के तौर पर देखा गया था। उस समय मोदी द्वारा की गई ताबड़तोड़ रैलियों में नोटबंदी को गरीबों के हितों के लिए उठाया कदम कह कर प्रचारित किया गया, जिस कारण विपक्ष के तीखे विरोध के बावजूद उत्तर प्रदेश की कमान भाजपा के हाथ आ गई थी। लोकसभा बनाम विधानसभा चुनावों के आंकड़ों के अनुसार 2014 के चुनावों से पूर्व मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा के जीतने के बावजूद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन लोकसभा चुनावों में हार गया था। इसी तरह 2008 में भाजपा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीती थी। परन्तु केन्द्र में कांग्रेस आई थी। अर्थात् विधानसभा चुनावों की जीत लोकसभा चुनावों की जीत का गारंटी कार्ड नहीं है। परन्तु उत्साहित करने वाला घटनाक्रम अवश्य है। राहुल और कांग्रेस की इस जीत को ‘सही समय पर हासिल हुई सफलता’ अवश्य कहा जा सकता है। क्योंकि जिस तरह विकास दर्शाने के लिए समय चाहिए होता है उसी तरह नकारात्मक प्रभाव नज़र आने के लिए भी समय की ही दरकार होती है। फिलहाल जनता की भाजपा के प्रति ‘सामयिक नाराज़गी’ इन राज्यों के परिणामों द्वारा बाहर आई है, परन्तु कांग्रेस को विकल्प के तौर पर स्वयं को उभारने के लिए अभी काफी मेहनत की ज़रूरत है।