एक ही कमी

एक मूर्तिकार था। बेहद कुशल और होशियार। मूर्तियां बनाता, तो ऐसी मालूम होतीं जैसे अभी बोल पड़ेंगी। उसे मूर्तियां बनाने की ऐसी लगन और धुन थी कि बस, बनाता ही जाता। लोग उसकी मूर्तियों को हाथों-हाथ खरीद लेते। मूर्तियां बेचने के लिए उसे बाज़ार भी नहीं जाना पड़ता। एक दिन अचानक उसकी नज़र आइने पर पड़ी तो उसे पता चला कि वह अपने काम में इतना मशगूल रहा कि उसे पता ही नहीं चला कि कब उसके सिर से सारे बाले सफेद हो चुके हैं। सुंदर चेहरे पर झुर्रियां पड़ चुकी हैं। अभी वह यह सब देख ही रहा था कि लोगों को भ्रमण करते हुए देवर्षि नारद उधर से आ निकले। मूर्तिकार ने देवर्षि को प्रणाम किया तो देवर्षि नारद ने उसके मस्तक की रेखाएं पढ़कर बताया कि आज से ठीक आठवें दिन तुम्हारी मृत्यु निश्चित है। मूर्तिकार निराश और उदास हो गया, पर उसने मौत को छकाने की तरकीब सोच ली।
उसने ठीक अपनी शक्लो-सूरत और कद-काठी जैसी आठ मूर्तियां बनाईं। आठवें दिन जैसे ही यमदूत उसकी मौत का संदेशा लेकर आते दिखाई दिए, वह झट से मूर्तियों के साथ सांस रोककर खड़ा हो गया। यमदूत हैरान-परेशान थे कि नौ के नौ लोग एकदम एक जैसी सूरत वाले कैसे हैं। उनमें बाल भर फर्क नहीं है। आखिर थक हारकर यमदूत वापस चले गए। उन्होंने यमराज को अपनी समस्या सुनाई। मृत्यु के देवता यमराज भी आए। उन्होंने भी देखा कि असली और नकली में भेद करना बेहद मुश्किल है। मूर्तिकार की चाल समझकर यमराज मुस्कराए और बोले-वाह रे मूर्तिकार, तूने क्या मूर्तियां बनाई हैं। सारी एक से बढ़कर एक। लेकिन सारी कुशलता के बावजूद एक कमी रह ही गई। यमराज की बात सुनकर मूर्तिकार खुद को रोक नहीं सका और तपाक से पूछ बैठा- क्या कमी रह गई महाराज? यमराज ने तुरंत उसका हाथ पकड़ा और कहा- बस यही। मानव की कमजोरी है कि वह अपनी आलोचना नहीं सुनना चाहता है। वह अपनी कमियों या कमजोरियों को सुनने के प्रति उदार नहीं होता। अगर ऐसा होतो उसे अपने कार्य में सफलता मिल सकती है।

-देवेन्द्र शर्मा