जनराहतों के आईने में विकास दर की राजनीति

इन दिनों भाजपा और कांग्रेस के बीच अपने-अपने शासनकाल में ज्यादा विकास दर हासिल करने को लेकर तकरार मची है। वित्तमंत्री अरुण जेतली ने यूपीए-1 के कार्यकाल में एक बार हासिल की गई करीब दहाई अंक की सालाना विकास दर को केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा घटा दिये जाने का बचाव किया है। दूसरी तरफ  यूपीए ने अपनी इस उपलब्धि को मोदी नीत एनडीए सरकार द्वारा कमतर करके दिखाये जाने को साज़िश बताया है। ऐसी ही तकरार विगत में भी हुई थी, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वाजपेयी नीत एनडीए शासनकाल के दौरान सबसे ज्यादा विकास दर हासिल होने की बात कही थी। विकास दर हासिल करने के दावे व प्रतिदावों के जरिये विकास दर के हासिल तथ्य और आंकड़ों को बयानों की पैंतरेबाजी से तो पलटा नहीं जा सकता, परंतु सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर कौन सा दल या उसकी सरकार विकास दर हासिल करने के लिए एक वांछित व सटीक प्रशासनिक संस्कृति पर अपनी नीतिगत स्पष्टता एवं माकूल नीयत से काम करने को तैयार दिखती है या कि कौन से दल अपने राजनीतिक फायदों को भी ताक पर रखकर विकास के परचम को सदैव लहराते रखना चाहते हैं, अथवा  कौन-सा दल या सरकार चुनावों में पहचान के कारकों व लोकलुभावन आर्थिक कदमों को ताक पर रखकर जनता को असल फायदे दिलाने में अपने आपको तल्लीन रखते हैं। अव्वल तो क्या इन सरकारों के विकास संबंधी दावे ज़मीन पर तथा जनराहत के स्तर पर दिखाई दे रहे हैं? कहना न होगा कि एक बहुदलीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों में सामाजिक राष्ट्रीय पहचान के कारकों के बजाय यदि आर्थिक विकास दर को लेकर प्रतियोगिता होती है तो गुड गवर्नेंस या सुशासन जैसे सरकार के सबसे बेहतर प्रदर्शन मानक का यह सबसे अच्छा आधार बनता है। मगर भारत जैसे देश में जहां दावों, घोषणाओं और सैद्धांतिक तौर पर की जाने वाली बातों तथा ज़मीन पर वास्तव में दिखने वालें नजारों के बीच एक अच्छा-खासा फासला दिखता है, जहां आंकड़ों की बातें एक तरह से अविश्वसनीय और गैर प्रमाणिक लगती हैं। ऐसे में सबसे बड़ा पैमाना तो राजनीतिक दलों के लिए यही हो सकता है कि उनकी घोषणाओं का शब्दश: और भावश: कितना प्रतिपालन होता है। सरकारों की बात करें तो उनके आंकड़ों व दावों का जमीन पर कितना प्रभाव दिख रहा है, यही असली कसौटी है। यदि विकास दर की बात करें तो 1990 के दशक में लागू की गई नई आर्थिक नीति, भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था को एक दूसरे के करीब लाई है। जिसने माना कि केन्द्रीकृत नियोजित अर्थव्यवस्था तथा सार्वजनिक उपक्रम पोषित व्यवस्था देश की विकास दर को हमेशा मंद ही रखेगी, साथ ही यह भी कि इसके बस में गरीबी के चक्रव्यूह को भेद पाना नहीं है। यह काम अब निवेश, उत्पादन व बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के जरिये ही संभव होगा। इस स्पष्टता के बाद ही तीन फीसदी वाली हिंदू विकास दर को पांच फीसदी से ऊपर ले जाने तथा भावुक समाजववादी जुमलों के बजाय ट्रिकल डाऊन थ्योरी के जरिये ही गरीबी पर हमले को एक बड़ी हकीकत माना गया। पिछले तीन दशकों के दौरान देश की आर्थिक हकीकत उपरोक्त अवधारणा को सही भी ठहराती है। यही वजह है कि आज राजनीतिक डोमेन में मुद्दा यह नहीं रह गया कि बाज़ारवाद बेहतर नीति है या सरकारवाद। आज विकास दर हासिल करने के दावे पर एक अच्छी प्रतियोगी राजनीति हो रही है। मगर इसी सवाल को लेकर भाजपा और कांगे्रस के बीच वे सभी मामले भी उठते हैं जब इन दोनों दलों ने अपने राजनीतिक फायदों या कहें कि अपने निर्णय के पीछे बेहतर विजन न होने के चलते देश की विकास दर और उससे प्राप्त होने वाली जनराहत को कैसे तगड़ी चोट पहुंचाई? नई आर्थिक नीति के जरिये देश की अर्थव्यवस्था को पुनजार्गृत करने के उठाये गए निर्णायक कदम का श्रेय कांग्रेस के नरसिम्हा राव व मनमोहन सिंह को जाता है।  शुरुआती तमाम बाधाओं के बावजूद इस नये आर्थिक रिजीम में इस इन दोनों ने जो ज़मीन छोड़ी है, उस पर 1998 में वाजपेयी नीत एनडीए ने ज्यादा ही तेज दौड़ लगाई और नि:संदेह पहले के मुकाबले वाजपेयी सरकार ने अपने कार्यकाल में ज्यादा विकास दर हासिल की।  मगर भारतीय राजनीति का वह स्थायी भाव जो आर्थिक लोकलुभावन घोषणाओं के रूप में जाना जाता है, उसके अभाव में यह वाजपेयी नीत एनडीए अपने बेहतर आर्थिक प्रदर्शन के बावजूद 2004 का चुनाव हार गईं। मगर चूंकि उस समय देश में बना आर्थिक आधार अच्छा था, अत: उस पर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए ने पहले से और ज्यादा विकास दर हासिल की। परंतु 2009 के चुनाव आते आते वही कांग्रेस, इस बार अपनी राजनीतिक प्रधान सोनिया के दबाव में उन सभी आर्थिक लोकलुभावन घोषणाओं को चुनाव के वक्त लाती है, जिसमे मनरेगा जैसी योजना लाई जाती है, सत्तर हज़ार करोड़ की कज़र्माफी की जाती है और एक खास वर्ग के लिए एक लाख करोड़ की लागत से छठे वेतन आयोग की अनुशंसाएं लागू की जाती हैं। सोनिया गांधी के नेतृत्व में हालांकि इन उपरोक्त कदमों के जरिये कांग्रेस 2009 का चुनाव ज़रूर जीता पर इससे उसकी अपनी ही नई आर्थिक नीति का कचूमर निकल गया। इन्हीं तीन कदमों से देश में राजकोषीय घाटा, मुद्रास्फीति और भ्रष्टाचार नये सिरे से बढ़ा। यही वजह है कि यूपीए के दूसरे कार्यकाल में विकास दर पांच फीसदी से ऊपर जाने को हमेशा तरसती रही। 2014 के चुनाव में भ्रष्टाचार और महंगाई ने यूपीए का पूरा बेड़ा गर्क कर दिया, जिसकी इबारत 2009 के चुनाव में ही बना ली गई थी। 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार कम से कम आर्थिक मामलों में नीतिगत रूप से ज्यादा स्पष्ट थी, जिसमें बिना लोकलुभावन कदमों के जरिये राजनीति को नियंत्रित करने का माद्दा था। पहले दो साल में नरेन्द्र मोदी सरकार ने बेहतर विकास दर हासिल भी की। परंतु भ्रष्टाचार की पिछले कई दशकों से चली आ रही समस्या, जिस पर मोदी सरकार पर पहल करने का दबाव था, उसके लिए की गई नोटबंदी की घोषणा और जीएसटी को बिना तैयारी के लागू करने के कारण आर्थिक व्यवस्था का दम निकल गया। इसलिए विकास दर की तमाम बहस अब सिर्फ  चुनाव जीतने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।