कृषि यूनिवर्सिटी के प्रति किसानों में कम हो रहा है विश्वास

भारत का गेहूं का उत्पादन पिछली शताब्दी के छठे दशक के शुरू में (जब हरित क्रान्ति का आगाज़ हुआ) एक करोड़ टन था और चावल का उत्पादन 3.5 करोड़ टन जो अब बढ़कर क्रमवार 9.9 करोड़ टन और 10.5 करोड़ टन पार कर गया। इसी तरह पंजाब का गेहूं उत्पादन इस समय के दौरान 17 लाख टन से बढ़कर 178-80 लाख टन और धान का उत्पादन 3 लाख टन से बढ़कर 170 लाख टन तक पहुंच गया। इस वृद्धि का कारण जहां कृषि वैज्ञानिकों के प्रभावशाली प्रयास हैं, वहीं सबसे अधिक योगदान अधिक झाड़ देने वाली नई किस्मों के बीजों का किसानों द्वारा बड़े स्तर पर अपनाया जाना है। भारत के दूरगामी डा.एम.एस. स्वामीनाथन और डा. अमरीक सिंह चीमा जैसे कृषि वैज्ञानिकों के प्रयासों से उस समय के कृषि मंत्री श्री सी. सुब्रामणयम के नेतृत्व में मैक्सिको से गेहूं की ‘लरमा रोजो’ और ‘सनौरा-64’ तथा चावल की ताइवान से टी.एन.-1 जैसी किस्में मंगवाकर जो वैज्ञानिकों ने खोज करके गेहूं और चावल की उत्तम किस्में विकसित करके उत्पादकता में प्रभावशाली वृद्धि की और फिर इसके बाद भूमि और पर्यावरण को मुख्य रखकर अन्य कई किस्मों के बाद वर्तमान में सफलता से बीजी जा रही गेहूं और चावल की अलग-अलग किस्में किसानों को देकर इन फसलों की उत्पादकता बढ़ाई। किसानों को फसलों के शुद्ध बीज मुहैया करने के पक्ष से भारत सरकार ने वर्ष 1966 में सीड एक्ट बनाया था, जो सभी राज्यों में आज भी उसी तरह लागू है। कृषि का विकास और फसलों की उत्पादकता बढ़ने के परिणामस्वरूप शुद्ध बीजों के महत्व को मुख्य रखते हुए इस एक्ट में संशोधन की ज़रूरत है जिस संबंधी गत सप्ताह आई.सी.ए.आर.के. पंजाब यंग फार्मरज़ एसोसिएशन के रखड़ा कैम्पस पर हुई किसान वैज्ञानिक गोष्ठी में यह प्रकट हुआ कि पंजाब की बीज बदल दर जो पिछली शताब्दी में लगातार बढ़ती रही और अब 33 प्रतिशत है। इसकी वृद्धि अब नहीं हो रही, अपितु यह दर कम होती जा रही है। हालांकि कृषि प्रसार सेवा द्वारा यह किसानों को संदेश दिया जा रहा है कि वह तीन वर्ष तक तो अपना ही बीज इस्तेमाल कर सकते हैं। बीज मंडी में गैर-स्तरीय और अशुद्ध बीजों की भी भरमार है तथा वर्तमान बीज एक्ट इस संबंध में भी मजबूत नहीं। कुछ किसानों द्वारा स्वै विकसित की गई किस्मों के बीज उनके द्वारा स्वयं किस्म का मनघड़ंत नाम रखकर महंगे मूल्य पर बेचे जा रहे हैं। पिछली खरीफ में कई उत्पादकों द्वारा स्वै विकसित धान की सी.आर.-212, सुपर गोल्ड-666, पीली उषा, बी.आर. 105 आदि जैसी किस्मों के बीज बड़े स्तर पर बेचे गए। ऐसी किस्मों को बेचकर कई स्थानों पर किसानों का शोषण भी हुआ और किसानों को नुक्सान भी उठाना पड़ा परन्तु इसको रैगुलेट करने के लिए सीड एक्ट में कोई उपबंध या संहिता नहीं। इसी तरह इसी रबी के दौरान गेहूं की कई किस्मों के बीज भी खुले रूप में बेचे गए। पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी द्वारा इस संबंध में किसानों को जागरूक करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। ऐसा रवैया अपनाने से किसानों का विश्वास भी इसके प्रति खत्म होता जा रहा है। गोष्ठी के दौरान यूनिवर्सिटी की सलाह पर पंजाब सरकार द्वारा धान की बुआई की तिथि बढ़ाकर 20 जून कर देना कड़ी आलोचना का विषय था। पंजाब प्रीज़रवेशन ऑफ सब स्वायल वाटर एक्ट 2009 के अधीन धान की बुआई की तिथि सर्वेक्षण के बाद 10 जून निर्धारित की गई थी। इस नए फैसले से किसानों का धान का झाड़ 10 से 20 प्रतिशत तक कम हुआ, जिसके परिणामस्वरूप राज्य के कुल उत्पादन में भी कमी आई। यूनिवर्सिटी और सरकार को चाहिए कि कोई भी नई कृषि तकनीक किसानों तक ले जाने के लिए उनमें जानकारी और तकनीक संबंधी जागरूकता लगातार मुहैया की जाए। यदि किसानों का विश्वास टूट जाए तो उसको पुन: बनाना असम्भव हो जाता है। धान की आग लगाने की प्रथा को बंद करने के परिणामस्वरूप यूनिवर्सिटी ने हैपीसीडर की तकनीक किसानों में प्रचलित की है। इसका दिखावा, कोई जानकारी और परख संबंधी लगातार प्रयास करने की ज़रूरत है। अच्छी तकनीक किसानों से स्वीकृत करवाने संबंधी भी यह प्रयास ज़रूरी हैं। कृषि सचिव काहन सिंह पन्नू द्वारा नदीननाशकों की मशीनी स्प्रे करवाने की विधि को किसानों से अपनाने संबंधी जो प्रयास किए गए हैं, वह सराहनीय हैं। डायरैक्टर जसबीर सिंह बैंस इस तकनीक को हर ब्लाक/गांवों में यू.पी.एल. द्वारा किसानों तक पहुंचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। गोष्ठी में प्रोटैक्शन ऑफ प्लांट वरायटीज़ एण्ड फार्मरज़ राइट्स अथॉरिटी (पी.पी.वी.एण्ड एफ.आर.ए.) के चेयरपर्सन डा. के.वी. प्रभु ने रहस्योद्घाटन किया कि गत 15 वर्षों के दौरान विकसित हुई फसलों की किस्मों के बीजों के विक्रेताओं को हर थैली में उस बीज संबंधी पैकेज ऑफ प्रैक्टिसज़ का लिख कर कार्ड डालना पड़ेगा, ताकि किसान उसको अपनायें और व्यापारिक तत्वों को लूट का अवसर न मिले। 

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