स्वस्थ शरीर के लिए जरूरी है व्यायाम 


संसार में सर्वोत्तम और सर्वप्रिय वस्तु स्वास्थ्य ही है। रोगी तो दूसरों पर भार होता है। पहला सुख ‘निरोगी काया’। स्वस्थ व्यक्ति के लिए यह संसार स्वर्ग समान है। एक दरिद्र मनुष्य जो पूर्ण स्वस्थ है, वही यथार्थ में धनवान है इसीलिए स्वास्थ्य ही हमारा सर्वस्व है। इसकी रक्षा करना ही हमारा परम कर्त्तव्य है।
अत्यंत दुख की बात है कि हमारी वर्तमान पीढ़ी का स्वास्थ्य धीरे-धीरे गिर रहा है। मिथ्या आहार होने से हमारा शरीर दूषित या रोगी होता है। परमपिता परमात्मा ने हमें रोगी और दुखी नहीं होने के लिए भेजा। हम तो दुखों और रोगों को स्वयं बुलाते हैं, फिर रोते हैं और पछताते हैं।
पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति का एक मात्र साधन व्यायाम ही है। चाहे स्त्री हो या पुरूष, जो भी भोजन करता है, उसे व्यायाम की उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी भोजन की। 
यदि मानव को शरीर से आनन्द उठाना है तो उस शरीर को व्यायाम द्वारा स्वस्थ और बलिष्ठ करना प्रत्येक स्त्री-पुरूष का परम धर्म है। सोलह वर्ष से 25 वर्ष की आयु तक वृद्धि की अवस्था मानी जाती है। वृद्धि अवस्था में जठराग्नि बड़ी तीव्र होती है। खाए-पिए को अच्छी तरह पचाने की आवश्यकता होती है। इसके लिए हमारे पेट में उष्णता की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। 
व्यायाम से ही सारे शरीर में उष्णता आ जाती है। जिस प्रकार विद्युत की धारा से बिजली की तार में उत्तेजना का संचार होता है उसी प्रकार व्यायाम से हमारे शरीर में रक्त उत्तेजित होकर नस नाड़ियों के द्वारा अत्यंत तीव्र गति से दौड़ने लगता है। सारे शरीर में रक्त संचार॒ भली-भांति होता है और यथायोग्य सब अंगों को शक्ति प्रदान करता है।
रक्त बनता है रस से और रस बनता है भोजन के पचने से। भोजन पचता है उष्णता से और उष्णता की जननी व्यायाम है। व्यायाम करने वाले को मंदाग्नि का रोग कभी नहीं होता। वह जो भी पेट में डाल देता है, सब कुछ शीघ्र ही पचकर शरीर का अंग बन जाता है। उसकी बल शक्ति दिन प्रतिदिन बढ़ती चली जाती है।
1अधिक स्थूलता को दूर करने के लिए व्यायाम से बढ़कर और कोई औषधि नहीं है। 
1व्यायामी मनुष्य पर बुढ़ापा सहसा आक्रमण नहीं करता। व्यायामी पुरुष का शरीर और हाड़-मांस स्थिर होता है।
1जो मनुष्य जवानी, सुन्दरता और वीरता आदि गुणों से रहित है उसको भी व्यायाम सुन्दर बनाता है।
व्यायाम करने वाले का शरीर बड़ा कसा हुआ और दर्शनीय होता है। नियमित व्यायाम से आचारहीन व्यभिचारी भी सदाचारी और ब्रह्मचारी बन जाता है। निर्बलता उससे कोसों दूर भागती है। निर्बलता तो आलसी मनुष्य के द्वार पर ही डेरा बनाती है और व्यायाम के डर से आलस्य भागता है। व्यायाम से शरीर हल्का-फुल्का और फुर्ती वाला हो जाता है।
विविधता यह है कि व्यायाम अधिक स्थूल मनुष्य को पतला और पतले को मोटा बनाता है और यही संसार में देखने को मिलता है कि फौजी भाइयों में बुढ़ापे में भी स्फूर्ति और उत्साह होता है, क्योंकि नियमित व्यायाम तथा पी. टी. करनी होती है। इसी कारण उनमें आलस्य का नाम भी नहीं होता। यह सब व्यायाम का फल है। 
व्यायाम करने वाला भयंकर शीत में भी आकाश की छत के नीचे केवल एक लंगोट बांधे हुए शुद्ध पवित्र शीतल वायु में खूब व्यायाम का आनन्द लूटता है। उधर व्यायाम न करने वाला शीत के डर के मारे रजाई में मुख छिपाए सिकुड़ा पड़ा रहता है। मलमूत्र त्याग की इच्छा होते हुए भी बाहर जाते हुए उसके प्राण निकलते हैं। अत: सर्दी सहन करने की असाधारण शक्ति व्यायाम द्वारा प्राप्त होती है।  व्यायाम छोड़ने से संसार की जो दुर्गति हुई है वह हमारे नेत्रों के सामने है। आज क्या बालक, कया युवा, सभी रोगी हैं। हमारी आयु सभी देशों से न्यून है। इस देश में सौ वर्ष से पूर्व कोई न मरता था। (स्वास्थ्य दर्पण)
- हंसराज विरकाली