अधिकारों से वंचित पंचायतों के हो रहे हैं चुनाव

जालन्धर, 26 दिसम्बर (मेजर सिंह): भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश के छ: लाख से अधिक गांवों के लोगों के जीवन की कायाकल्प करने के लिए पंचायती राज प्रबंध की स्थापना की थी परन्तु देश में संविधान लागू हुए लगभग 7 दशक बीतने के बाद भी पंचायतों को अधिकार हासिल करने के लिए तरसना पड़ रहा है तथा इस समय विकसित समझे जा रहे पंजाब के 13276 अधिकारों से वंचित पंचायतों के लिए 30 दिसम्बर को चुनाव होने जा रहे हैं। स्व. प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहलकदमी पर 1985 में संविधान के 73वें संशोधन में 29 विभाग पंचायती राज हवाले करने का फैसला भी 33 वर्ष बीत जाने के बाद अमल में नहीं लाया जा सका। हालात का विरोधाभास यह है कि आनंदपुर साहिब के प्रस्ताव तहत राज्यों को अधिक अधिकारों की पैरवी करने वाली अकाली लीडरशिप कई दशक कांग्रेस कोयह मेहने मारती रही है कि उन्होंने राज्यों की हालत म्यूनिसिपलटियां (पंचायती राज) जैसी बना रखी है परन्तु जब पंजाब में लगातार 10 वर्ष राज करने का मौका मिला तो शहरी स्वै शासन संस्थानों व पंचायती राज को पूरे अधिकार देने को दूर, बल्कि पिछली कैप्टन सरकार समय पंचायती संस्थानों को मिला छ: विभागों का चार्ज भी वापस ले लिया। हैरानी वाली बात यह है कि वोटें समय पर हर पार्टी पंचायतों को बनते अधिकार देने की बात करती है परन्तु सरकार बनते ही हर राजनीतिक पार्टी की इस तरफ से आंखें बंद हो जाती हैं। इस समय पंचायती संस्थानों को किसी भी तरह के वित्तीय या प्रशासनिक अधिकार नहीं। पंचायत राज कानून अनुसार ज़िले के ग्रामीण विकास की योजनाबंदी, फंड, विकास कार्यों सहित गांवों से संबंधित सभी विभागों को चलाने की ज़िम्मेवारी ज़िला परिषद् की है। इसी तरह ब्लाक में ब्लाक समिति व गांव में पंचायत ज़िम्मेवार बनती है परन्तु सरकारों ने पंचायत कानूनों को किनारे लगाकर हर ज़िले में गैर-संवैधानिक ढंग से ज़िला योजना कमेटियां बना रखी हैं तथा इन कमेटियों के चेयरमैन हकूमती पार्टियों के हारे हुए नेता या चहेते लगा दिए जाते हैं। सभी फंड गैर-वैधानिक ढंग से विधायकों को बांट दिए जाते हैं तथा फिर विधायक मज़र्ी से इन फंडों का प्रयोग करते हैं तथा फिर सरपंच विधायकों के पीछे फंडों के लिए मिन्नतें करते रहते हैं। चुने हुए किसी पंचायती संस्थान की कहीं कोई पूछ प्रतीत ही नहीं। ज़िला परिषद् का 5 रुपए का बिल भी तब तक स्वीकृत नहीं होता जब तक ज़िला परिषद् का कार्यकारी सचिव बनाया। ज़िले का ए.डी.सी. हस्ताक्षर नहीं करता। ज़िला परिषदें, समितियों व पंचायतों के पास अधिकार ही नहीं। वह बस विधायक द्वारा भेजे पैसे को ही खर्च करने तक सीमित रहते हैं। इस खर्च पर भी कुंडा पंचायत या समिति का नहीं बल्कि बी.डी.पी.ओ. या सचिव का ही रहता है। पंजाब पंचायत यूनियन के प्रधान स. हरदेव सिंह सियालू को कहा है कि कई दशकों से कानूनी व सार्वजनिक लड़ाई के बावजूद पंचायतों को अधिकार नहीं दिए जा रहे। इकहरे पद के लिए आरक्षण गलत : पंचायत के सरपंच, ब्लाक समिति चेयरमैन व ज़िला परिषद् चेयरमैन के पदों में आरक्षण बारे सवाल उठने शुरू हो गए हैं। पटना व कलकत्ता की उच्च अदालतों ने यह आदेश भी दिए थे कि इकहरे पद वाले स्थानों पर आरक्षण नहीं होना चाहिए परन्तु इन आदेशों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने के कारण इस पर अभी अमल नहीं हो सका परन्तु पंचायत यूनियन के प्रधान स. हरदेव सिंह सियालू ने कहा कि पंचायती राज के इकहरे पदों में आरक्षण गैर-संवैधानिक है। उनका कहना है कि प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के पदों में कोई आरक्षण नहीं। इसी तरह केन्द्र के वज़ीरों व राज्यों के वज़ीरों में भी कोई आरक्षण नहीं है। उन्होंने प्रश्न उठाया कि यदि देश के उच्च संवैधानिक पदों में आरक्षण नहीं है तो फिर पंचायती राज में यह गैर-संवैधानिक फैसला क्यों लागू किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि आरक्षण वहीं होता है जहां बराबर के कई पद हों।