बंगलादेश के चुनावों का महत्व


बंगलादेश में शेख हसीना के नेतृत्व में आवामी लीग ने एक बार फिर बड़ी जीत प्राप्त की है। 300 सदस्यों के सदन में से हसीना की पार्टी और उनके सहयोगियों को 288 सीटें मिली हैं। इसकी विरोधी बंगलादेश नैशनलिस्ट पार्टी ने कहा है कि इन चुनावों में आवामी लीग पार्टी द्वारा बड़े स्तर पर धांधली की गई है। विरोधी उम्मीदवारों को डराया, धमकाया गया है। सरकार ने अपनी मनमज़र्ी की है। इस दौरान बड़े स्तर पर हुई हिंसा में लगभग डेढ़ दर्जन लोग मारे गए और सैकड़ों ही घायल हुए हैं। परन्तु बंगलादेश में शुरू से लेकर ऐसा चलन ही दिखाई देता रहा है। 
बंगलादेश नैशनलिस्ट पार्टी और जमात-ए-इस्लामी ने खालिदा जिया के नेतृत्व में वर्ष 2001 में सरकार बनाई थी, जो पांच वर्ष तक चली थी। उस समय भी विजेता रही पार्टी पर ऐसे ही दोष लगाये गये थे। परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि पांच वर्ष चली इस सरकार में जहां भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा, वहीं आतंकवादी संगठनों ने भी अपनी मनमज़र्ी की। हिन्दुओं सहित अल्पसंख्यकों की आवाज़ को पूरी तरह दबा दिया गया था। भारत, जिसने बंगलादेश की हर समय सहायता की थी, से भी संबंध पूरी तरह बिगड़ गए थे। हसीना वाजिद बंगलादेश के प्रथम प्रधानमंत्री शेख मुजीब-उर-रहमान की बेटी हैं। मुजीब-उर-रहमान और उनके समूचे परिवार को उस समय बगावत करके सेना और आतंकवादियों ने मार दिया था। शेख हसीना उस समय विदेश में होने के कारण अकेली बच गई थी। उसके बाद बंगलादेश में हालात बेहद खराब हो गए थे।
अंग्रेज़ों द्वारा भारत की आज़ादी के साथ ही 1947 में देश का विभाजन कर दिया गया था। उस समय बंगाल को भी बांट दिया गया था। इस हिस्से को साथ मिलाकर पूर्वी पाकिस्तान बनाया था परन्तु देश के इस हिस्से को पश्चिम पाकिस्तान ने पूरी तरह उपेक्षित कर दिया था। यहां गरीबी, अकाल और राजनीतिक गड़बड़ बनी रही थी। 1971 में शेख मुजीब-उर-रहमान के नेतृत्व में बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी, जिसके बाद पाकिस्तान का यह हिस्सा आज़ाद होकर बंगलादेश के रूप में सामने आया था। चाहे क्षेत्रफल के पक्ष से यह पश्चिम पाकिस्तान से काफी कम था परन्तु इसकी आबादी पश्चिमी पाकिस्तान से कहीं अधिक थी। आज़ाद होने के बाद भी अनेक सैन्य बगावतों के कारण और राजनीतिक अस्थिरता के कारण यहां हमेशा अनिश्चतता वाली स्थिति बनी रही थी। आतंकवादी संगठन  यहां कब्ज़ा करके इसको मुस्लिम देश बनाना चाहते थे। परन्तु आवामी लीग अपने संस्थापक मुजीब-उर-रहमान के नक्शे कदमों पर चलते हुए इसको लोकतांत्रिक धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाना चाहती थी। बड़ी गड़बड़ के बाद अंतत: शेख हसीना को लोगों का समर्थन मिला। शेख हसीना ने अपनी पार्टी के बनाये संविधान के अनुसार न सिर्फ लोकतांत्रिक सरकारें बनाने को ही प्राथमिकता दी, अपितु आतंकवादी संगठनों को ही उन्होंने पूरी तरह नकेल डाली। 
1971 की आज़ादी की लड़ाई के समय पाकिस्तानी सेना ने इन आतंकवादी संगठनों के साथ मिलकर लाखों ही लोगों को मार दिया था। इस संबंध में शेख हसीना ने कड़ा कदम उठाकर इन अपराधों के लिए आयोग बनाये, जिनके आधार पर उस समय के हत्याओं के दोषियों को बड़ी सज़ाओं के भागीदार बनाया गया। शेख हसीना के समय भारत के साथ अच्छे संबंध बने रहे हैं। अपने पिता की तरह वह भारत की ओर से की गई सहायता के लिए शुक्रगुज़ार रही हैं, क्योंकि बंगलादेश को पाकिस्तान के शिकंजे से निकालने के लिए भारत ने शेख मुजीब-उर-रहमान की सहायता की थी। शेख हसीना को इस बात का पूर्ण एहसास है कि भारत के सहयोग के बिना बंगलादेश अपने पांवों पर नहीं खड़ा हो सकता। गत पांच वर्षों में उन्होंने अपनी प्रभावशाली नीतियों से जहां देश की आर्थिकता को मजबूत किया, वहीं वह देश के करोड़ों लोगों को बेहद गरीबी के हालात से निकालने में भी सफल रही। यह भी एक बड़ा कारण है कि आज वह अपने लोगों में लोकप्रिय नेता बनकर उभरी हैं।
चाहे असम में बंगलादेशियों को लेकर बड़ा घमासान मचा रहा है परन्तु शेख हसीना ने भारत के साथ जुड़ी सभी समस्याओं संबंधी अपना सकरात्मक रवैया धारण किए रखा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी यह इच्छा व्यक्त की है कि भारत और बंगलादेश के बीच भागीदारी शेख हसीना के दूर-दृष्टि वाले नेतृत्व से लगातार आगे बढ़ती रहेगी। शेख हसीना ने सार्क देशों के संगठन के साथ हमेशा मिलकर चलने को प्राथमिकता दी है। उनके नेतृत्व में यह विश्वास अवश्य बंधता है कि जहां वह अपने लोगों को अनेक समस्याओं से निकाल सकने में सफल होंगी, वहीं देश की आर्थिकता को भी और प्रोत्साहन देने में सफल हो सकेंगी। ऐसा विश्वास बंधता है कि शेख हसीना की यह बड़ी जीत भविष्य में दोनों देशों के सहयोग और पक्की मित्रता की साक्षी बन सकेगी।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द