क्या साहित्य अकादमी पुरस्कारों पर पुरुषों का कब्ज़ा है ?


चित्रा मुद्गल को उनके उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार की घोषणा से लेखन जगत में एक खुशी की लहर दौड़ गई है। इसकी अपनी वजहें भी हैं। चित्रा जी लंबे अरसे से इस पुरस्कार की हकदार और दावेदार थीं। दलितों, श्रमिकों, वंचितों, उपेक्षित बुजुर्गों और महिलाओं के लिए काम करने वाली चित्रा जी लगभग आधी सदी से साहित्य में सक्रिय हैं। यह उपन्यास भी उन्होंने किन्नरों के जीवन पर लिखा है। इसे भी हाशिये पर रहने वाले लोगों का उपन्यास कहा जा सकता है। लेकिन चित्रा जी को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलने की एक बड़ी खुशी इसलिए भी थी; क्योंकि अकादमी पुरस्कार जीतने वाली वह केवल पांचवीं महिला हैं। 
साहित्य अकादमी पुरस्कार 1955 से शुरू हुआ। पहला पुरस्कार माखनलाल चतुर्वेदी को दिया गया। इसके बाद से हर वर्ष (1962 को छोड़कर) यह पुरस्कार दिया जाता रहा है। कहने का मतलब इस पुरस्कार को देते हुए छह दशक से भी ज्यादा हो चुके हैं। लेकिन अकादमी पुरस्कार पाने के लिए पहली महिला को 25 साल की प्रतीक्षा करनी पड़ी। सबसे पहले 1980 में कृष्णा सोबती को ‘जिंदगीनामा’ उपन्यास के लिए यह पुरस्कार दिया गया। लेखिकाओं में शायद अब तक वह पहली ऐसी लेखिका हैं, जिनके पास अपनी सिग्नेचर ट्यून है। सूरजमुखी अंधेरे के, मित्रो मरजानी, दिलो दानिश, जिंदगीनामा, ऐ लड़की से लेकर गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान तक कृष्णा सोबती ने साहित्य को ही समृद्ध किया। 
‘जिंदगीनामा’ एक ऐसा उपन्यास है जिसे सही अर्थों में जिंदगी का ही पर्याय कहा जाता है। इसमें न कोई नायक है न खलनायक। इसका कालखंड बीसवीं सदी के पहले मोड़ पर खुलता है। आगे भविष्य है और पीछे इतिहास की बेहिसाब परतें। लेकिन वास्तव में इस उपन्यास में जीवन है, जीने की जद्दोजहद है। यह बड़े कैनवास का उपन्यास है। कृष्णा सोबती अपनी लेखनी में निर्भीकता, परिधि और पंरपराओं से बाहर जाकर सोचने के लिए जानी जाती हैं। इसलिए ‘जिंदगीनामा’ को अकादमी पुरस्कार मिलना पूरे साहित्य जगत के लिए गौरव की बात है। गौरव इसलिए भी क्योंकि यह पुरस्कार पाने वाली वह पहली महिला थीं। इसके साथ ही उन्होंने लेखिकाओं के इस पुरस्कार को पाने के रास्ते खोले थे। 
इन रास्तों पर अगला कदम रखा अलका सरावगी ने। आश्चर्यजनक रूप से उन्हें पहले ही उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया। 2001 में ‘कलि कथा बायपास’ पर अलका सरावगी को यह पुरस्कार मिला तो साहित्यिक जगत में कई लेखिकाओं की पेशानी पर बल पड़े। इसलिए भी क्योंकि उस समय कई लेखिकाएं उस पुरस्कार की दावेदार कही जा रही थीं। लेकिन ‘कलि कथा बायपास’ को इसलिए भी महत्वपूर्ण उपन्यास माना गया क्योंकि जिस दौर में यह उपन्यास लिखा गया, वह आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण का शुरुआती दौर था। इस बदलाव को बुद्धिजीवी अपने-अपने तरीके से देख और परिभाषित कर रहे थे। 
इस उपन्यास में डेढ़ सौ साल के रूढ़ीवादी मारवाड़ी समाज की कथा के साथ-साथ भारतीय समाज की विसंगतियों की जड़ें तलाशने की कोशिश भी अलका सरावगी ने की। साहित्य अकादमी के पुरस्कार की एक और दावेदार थीं। वह थीं मृदुला गर्ग। सन 2013 में उन्हें ‘मिलजुल मन’ उपन्यास पर यह पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार पाने वाली वह तीसरी लेखिका हुईं। हालांकि मृदुला गर्ग ‘अनित्य’ और ‘चित्तकोबरा’ जैसे उपन्यास लिखकर अपनी जगह बना चुकी थीं। लेकिन पुरस्कार उन्हें मिला ‘मिलजुल मन’ पर। इस उपन्यास में उन्होंने 50 के दशक में मध्यवर्ग की जिंदगी और सामाजिक पारिवारिक स्तर पर आने वाले बदलावों और उनके समानांतर स्वतंत्र भारत के मूल्यों की पड़ताल, अलग-अलग किरदारों के जरिये की। इस उपन्यास में मृदुला गर्ग ने राजनीतिक चिंतक या विचारक से अलग हटकर एक आम आदमी के मुगालतों का स्खलन चित्रित किया।  तीन साल बाद, 2016 में नासिरा शर्मा को ‘पारिजात’ उपन्यास पर अकादमी पुरस्कार मिला। नासिरा शर्मा को भी देर से मिला यह पुरस्कार। इससे पहले तक नासिरा ‘सात नदिया’, ‘एक समंदर’, ‘शाल्मली’, ‘ठीकरे की मंगनी’, ‘कुइयांजान’, ‘जीरो रोड़’ जैसे उपन्यास लिख चुकी थीं। 
नासिरा उन गिनी-चुनी लेखिकों में हैं जिनकी रचनाओं में समय पूरी शिद्दत से दिखाई पड़ता है। उनके उपन्यासों का कैनवास बेहद बड़ा होता है। इसमें एक सोच भी साफ  तौर पर दिखाई देती है। ‘पारिजात’ का कैनवास भी बहुत विराट है। इसमें गहरी सोच और शोध भी दिखाई पड़ता है। गौरतलब है कि ‘पारिजात’ एक फू ल का नाम है, जिसकी स्मृतियां स्वर्ग से जुड़ती हैं। किस्सागोई के लिए पहचानी जाने वाली नासिरा शर्मा ने इस उपन्यास में, पारिजात सिर्फ मैटाफ र की तरह नहीं बल्कि नये पुराने रिश्तों की दास्तान के रूप में दर्ज हुआ है। 
पारिजात को अकादमी पुरस्कार मिलना यकीनन लेखन जगत के लिए भी सम्मान की बात थी। हालांकि नासिरा शर्मा भी इस पुरस्कार की लंबे समय से दावेदार थीं। लेकिन देर आयद दुरुस्त आयद। साहित्य अकादमी पुरस्करों के इतिहास में पांचवीं लेखिका चित्रा मुद्गल रहीं। अकादमी ने 63 सालों में केवल पांच महिलाओं को इस पुरस्कार के योग्य समझा। इस दौरान कितनी ही महिलाएं आयीं और चली गईं। अलग-अलग कारणों से वे पुरस्कार से वंचित हीं रहीं। इनमें वरिष्ठ लेखिका मन्नू भंडारी, ममता कालिया और मैत्रेयी पुष्पा का नाम शामिल है। सवाल यही उठता है कि क्या यहां भी पुरस्कारों पर पुरुषों का ही कब्जा है? -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर