देश तरक्की कर रहा है !


आज की दुनिया में सिद्धांतों और आदर्शों की दुहाई देने से बड़ी पोंगा पंथी कोई और नहीं। बल्कि यह समझा जा रहा है कि ‘हारे को हरिनाम’ की तरह जो आदर्शों और सिद्धांतों की दुहाई दे रहा है, वह सबसे बड़ा पराजित है। यूं अपनी पराजय को न्याय संगत ठहरा रहा है कि जनाब मैं नैतिकता के सिद्धांतों का पालन करता रहा, सदा सच बोलने का प्रयास किया, इसलिए जीतने के लिए जो मूल शर्तें थीं, नहीं पूरी कर पाया, फिर उपलब्धियों की कौन-सी मंज़िलें विजित करना चाहता मैं आप? आज जो सच बोलने की तकलीफ नहीं करता, ईमानदारी और मेहनत का दामन नहीं थामता, वही चाणक्य नीति का सच्चा साधक है कि ‘भय्या अप्रिय सत्य न बोलो। सब को प्रिय लगने वाले झूठ का आसरा लो। बार-बार दुहराने पर यह झूठ ही सच लगने लगेगा।’
यारों ने घपलों-घोटालों के रिकार्ड तोड़ दिए। आजकल सौ दो सौ करोड़ रुपए के घोटाले का आरोप लगाना घोटालाबाज़ों का अपमान है। घोटाला किया भी और वह लाख दो लाख करोड़ से आरोप तक न पहुंचा, तो ऐसे शक्तिहीन आरोप लगाने में लज्जा है। इसकी जांच के लिए तो आजकल कोई ठण्डे बस्ते का मुंह खोलने का भी प्रयास नहीं करता। इसका निपटारा तो मीडिया में खण्डन करने से ही हो जाता है। यारों ने लाखों करोड़ के घोटाले राजनैतिक अदावत के नाम पर गुम कर दिये, सौ-दो सौ करोड़ रुपये के बच्चू घोटाले राजनीति के इस नमुल युद्ध में कहां गुम हो गये, कुछ पता नहीं चलता।
फिर अपनी कमीज़ पर ईमानदारी की सफेदी और दूसरे की कमीज़ पर बेईमानी की कालिख पोतने के और भी सौ तरीके हैं। पिछले युग के श्रमन्तों की कमीज़ हमेशा अपनी कमीज़ से अधिक मैली दिखाई जा सकती है। आपने आज के युग मानव पर भ्रष्टाचार का  आरोप लग गया, क्या चिन्ता है? सदा जवाबी हमले के कोलाहल में इसे डुबो सकते हो कि ‘जरा अपने युग की सुध लो। तुम्हारे वक्त में तो हम से कहीं बेईमानी, भ्रष्टाचार और घोटालों का बोलबाला था। हमने तो फिर भी घोटाला प्रतिशत कम कर दिया।’
यही फार्मूला विकास मापने का नया पैमाना बन गया। माना हम महंगाई कम नहीं कर सके, लेकिन अपनी युग से तुलना कर लो, तुम्हारे युग में तो महंगाई का सूचकांक दो अंकों में रहता था, हम इसे एक अंक में ले आये। बस अब सिर खुजलाने के सिवाय क्या करें? अजी दो अंक और एक अंक क्या, तुम तो न जाने कितने सप्ताह इसे सिफर भी कहते रहे। लेकिन बाज़ार जाओ तो वस्तुओं की कीमतें उसी तरह झटका देती हैं। थैला भर नोट ले जाते हैं, मुट्ठी भर वस्तुएं ले आते हैं। मिलावटखोरों और जमाखोरों के भव्य प्रासाद इसी बला पर खड़े हो गये। इस प्रासाद की नींव से परे एक टूटा फुटपाथ है, जिसके साथ कभी बच्चों का घासीला मैदान था, अब वहां कूड़े का डम्प बन गया। उसके किनारे बैठ सींकिया बदन आदमी रोज़ शाम को राम धुन गाते हैं, जब तक कि उनकी राम नाम सत नहीं हो जाता।
राम नाम सत हो जाना अब कहीं भी दु:ख का एहसास नहीं देता। यह आदमी जीवन भर न खेला न खाया, न जिया न मरा, न पहना न हंडाया। अब ऐसे आदमियों का जीना क्या और मरना क्या? चल बसा तो धरती का बोझ घटा। देश की बढ़ती आबादी में ब्रेक लगी। अहलकार नये आंकड़ों को पेश करते हुए परिवार नियोजन कार्यक्रमों की सफलता की घोषणा कर सकते हैं। नहीं इसके साथ अपने देश का दर्जा भुखमरी सूचकांक में अपर होता हुआ न देखना। इस सूचकांक का हमारे मोहल्ले या हमारे इलाके से कोई संबंध नहीं। यहां आदमी भूख और कज़र्दारी की ताब न लाकर फांसी का फंदा लगाकर झूल जाये, तो कहते हैं प्राकृतिक दुर्घटना हो गई, आदमी आहार पथ्य के अभाव में दम तोड़ दे तो कहते हैं बदहज़मी से मर गया। ऐसी मौतों को गिनने का झंझट कौन करे? करोगो तो पीड़ितों का मुआवज़ा नहीं देना होगा। यह मुआवज़ा यूं ईमानदारी से पीड़ितों में बंट जायेगा, तो भला सत्ता के दलाल क्या खायेंगे?
कब से विनय कर रहे हैं कि ये दलाल न हों तो देश का कारोबार न चले। रक्षा सौदे कैसे होंगे? जैसे औरत बिना पूत न सुहावे, वैसे ही रक्षा सौदा बिना दलाली न सुहावे। पहले बात चली थी कि इन दलालों की मूल्यवान सेवा देखते हुए इन्हें कानूनी करार दे दिया जाये। लेकिन भय्या यह तो मधुमक्खियों का छत्ता है। एक धंधा कानूनी बनाओगे तो सब धंधे कानूनी बनाने पड़ेंगे। देखते ही देखते कहीं ऐसा न हो जाए कि ये सब धंधे कानूनी हो जायें और आदमी गैर-कानूनी। तभी तो आज चौराहे पर भीख मांगने वालों की आवाज़ धड़ल्लेदार हो गई। आप उसे पांच-दस रुपये से कम भीख भी देकर दिखाइये, वह करुणा से भर आर्द्र स्वर में कह देगा ‘अरे भाई, इतने ही टूटे हुए तो चोला क्यों नहीं बदल लेते?’ इस फटीचर साइकिल मोपेड को छोड़ो, हमारे साथ चलो, हमारा धंधा अपना लो। बैसाखियां भी किराये पर मिल  जाती हैं, और ज़ख्मों पर लगाने वाला लेप भी। मांगने के लिए अगला चौराहा तुम सम्भाल लो। मोपेड से स्कूटर बनाते देर नहीं लगेगी। अहा! देश कितना तरक्की कर रहा है।