आर्थिक आधार पर आरक्षण फैसले की विसंगतियां


लोकसभा के बाद राज्यसभा ने भी आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण जातियों को सरकारी नौकरियों व शिक्षा में दस प्रतिशत आरक्षण देने वाले विधेयक को पारित कर दिया। दोनों सदनों में विधेयक पेश करने से पारित करने का काम मात्र दो दिन में पूर्ण हो गया। यह तो होना ही था; क्योंकि आम चुनाव को प्रभावित करने की दृष्टि से लिए गये निर्णय का विरोध करने की स्थिति में कोई भी पार्टी नहीं थी। इसलिए दबे शब्दों में विधेयक व सरकार की नीयत की आलोचना तो हुई, विधेयक को रोकने का प्रयास नहीं। लेकिन इस जल्दबाजी के बीच विधेयक की विसंगतियों को पूर्णत: अनदेखा कर दिया गया, जो संवैधानिक संशोधन के रूप में लाये गये विधेयक की न्यायिक समीक्षा के दौरान अवश्य उठेंगी, जिससे इस विधेयक के लिए न्यायिक दीवार को भेद पाना शायद कठिन हो सकता है।
गौरतलब है कि 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने भी आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने का प्रयास किया था, लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था; क्योंकि वह 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को लांघ रहा था, जो आरक्षण की नई मांगें हैं जैसे मराठों के लिए महाराष्ट्र में और पाटीदारों के लिए गुजरात में। इन दोनों ही समुदायों को संबंधित राज्य सरकारों ने 5 प्रतिशत आरक्षण देने की कोशिश की थी, लेकिन वह कोशिश भी 50 प्रतिशत सीमा की दीवार से टकराकर बेकार हो चुकी है। इसलिए कोई गारंटी नहीं है कि केंद्र सरकार का यह प्रयास न्यायिक समीक्षा को पार कर पाये। भले ही सरकार का फि लहाल यह दावा व आश्वासन हो कि ऐसी कोई समस्या नहीं आयेगी।
नये प्रयास के तहत आर्थिक आधार पर आरक्षण प्राप्त करने की शर्त यह है कि वार्षिक आय आठ लाख से अधिक न हो, कृषि भूमि 5 एकड़ से कम हो, रिहायशी घर 1000 वर्ग फीट से कम हो, आदि। आइये पहले इसी बात की चर्चा करते हैं कि तमाम स्रोतों से घर की वार्षिक आय 8 लाख रुपये से अधिक न हो। वर्तमान में स्थिति यह है कि जो भारतीय साल में 2.5 लाख रुपये या उससे अधिक कमाता है, उसे आयकर देना होता है। दूसरे शब्दों में सरकार इस स्तर की आय को आयकर देने के लिए पर्याप्त मानती है। इसके बावजूद नया निर्णय यह सुझाव देता है कि एक परिवार जिसका एक ही सदस्य कमाने वाला हो, अगर वह इससे तीन गुना आय करता हो यानी 7.5 लाख रुपये प्रति वर्ष, तो वह आर्थिक रूप से पिछड़ा है और इसलिए शिक्षा व नौकरियों में आरक्षण के योग्य। 
डबल इन्कम परिवार में जहां दोनों पति व पत्नी चार-चार लाख रुपये से कम कमाते हैं, दोनों ही कर भरते हैं, वह परिवार भी आरक्षण के योग्य होगा। आठ लाख रुपये तक की आय प्रति वर्ष करने वाले, न सिर्फ  कर देते हैं बल्कि दूसरे स्लैब 20 प्रतिशत के तहत ऐसा करते हैं, तो इतनी आय करने वाले राज्य की निगाह में क्या हैं? क्या वे ‘गरीब’ हैं कि उन्हें आरक्षण दिया जाये या वह इतने संपन्न हैं कि वह प्रवेश स्तर से अधिक टैक्स भरें? ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार उन्हें दोनों ही मानती है- गरीब भी और कर देने योग्य संपन्न भी। यह अजीब विरोधाभास है कि जिस भारतीय की आय 33 रुपये प्रति दिन है वह गरीबी रेखा से ऊपर है, लेकिन प्रति माह 66,666 रुपये कमाने वाला (8 लाख रुपये वार्षिक) सवर्ण गरीब है। 
यह आश्चर्य नहीं कि आय के आधार की यह तार्किक विसंगति 95 प्रतिशत से अधिक उन लोगों को, जिन्हें जाति के आधार पर आरक्षण प्राप्त नहीं है, आर्थिक आरक्षण के लिए योग्य बना देती है। एक अन्य तार्किक असंगति यह है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण में शामिल न किये जाने की शर्त पूर्णत: वही है जो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए है। अब ओबीसी को आरक्षण आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि सामाजिक व शैक्षिक पिछड़ेपन के कारण मिला हुआ है। आर्थिक आधार तब सामने आया जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ओबीसी में जो मलाईदार परत है, उसे आरक्षण की सुविधा नहीं दी जा सकती। 
इसलिए ओबीसी के लिए जो 8 लाख रुपये का कट ऑफ  है, वह उनमें मलाईदार परत को परिभाषित करता है। यह गरीबी की परिभाषा नहीं है। गरीब और मलाईदार परत के बीच बहुत लोग हैं जो इन दोनों श्रेणियों में नहीं आते। मलाईदार परत के कट ऑफ  को गरीब (या आर्थिक पिछड़ों) की परिभाषा बनाना मुद्दे को ही समाप्त कर देना है। ऐसा नहीं हो सकता कि इन असंगतियों पर काबिना में बैठे कानूनी माहिरों का ध्यान न गया हो। इसलिए अनुमान यही है कि इन्हें राजनीतिक आवश्यकताओं के लिए अनदेखा कर दिया गया है, सवर्ण जातियों व अन्य जैसे पटीदार व मराठा को विश्वास दिलाने के लिए कि भाजपा उनके हितों की सच्ची संरक्षक है। 
लेकिन सवाल यह है कि क्या नये आरक्षण से इन वर्गों को लाभ मिलेगा? शायद नहीं। एक तो सरकारी नौकरियों का जबरदस्त अभाव है, रही बात शिक्षा (विशेषकर प्रोफेशनल शिक्षा) की तो अधिकतर सीटें उन्हें ही मिलती हैं जो आरक्षित श्रेणी में नहीं हैं और ज्यादातर मामलों में उन्हें अधिक सीट मिल जाती हैं क्योंकि आरक्षित सीट अक्सर खाली रहती हैं। दरअसल, राजनीतिक कारणों (बल्कि वोट के लालच) से उठाया गया यह कदम बर्र के छत्ते में हाथ डालना साबित हो सकता है। एक बार 50 प्रतिशत की सीमा पार हो जायेगी तो आरक्षण की दौड़ फ्री-फ ॉर-आल हो जायेगी। 
ओबीसी की मांग अभी से यह है कि उनका कोटा उनकी जनसंख्या के अनुपात में 27 प्रतिशत से बढ़ाकर 54 प्रतिशत किया जाये। अगर इस ट्रेंड को प्रोत्साहित किया जाता रहा तो अनुच्छेद 15 (समता का मौलिक अधिकार) की आवश्यकता कहां रह जायेगी? उसे संविधान से निकाल दिया जाये और भारतीयों से कह दिया जाये कि वह अपनी जाति, धर्म आदि में शरण लें। उच्च शिक्षा व प्रशासन में समता व मेरिट की बलि चढ़ाकर त्वरित राजनीतिक लाभ तो हो सकता है, लेकिन दीर्घकालीन नुक्सान अधिक व घातक हैं। अगर देश को प्रगतिशील से विकसित के दायरे में लाना है तो कोई शोर्ट कट नहीं है, सिर्फ  यह रास्ता है कि नागरिकों को अच्छी शिक्षा व जॉब्स प्रदान किये जाएं। भारत का राजनीतिक वर्ग इस बात पर अपना ध्यान लगाये और सुप्रीम कोर्ट इस वर्ग को कोटा के मार्ग पर न चलने दे अपनी 50 प्रतिशत की सीमा को दोहराकर।    
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर