सिनेमा के दर्पण में स्त्री अस्मिता


हिन्दी सिनेमा मनोरंजन की दुनिया में दूर तक प्रभाव रखने का माध्यम हो गया है, परन्तु जब मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक दायित्व का निर्वाह भी होता है तब इस माध्यम का सकारात्मक संदेश ज्यादा मूल्यपरक हो जाता है। परन्तु क्या हम नायिका विहीन सिनेमा की कल्पना कर सकते हैं? जिस किसी फिल्म में पुरुष पात्र का पराक्रम विलेन का किला ध्वस्त कर नायकत्व दिखा रहा होता है, वहां भी नायिका की सुंदरता और प्रेम कहानी में जान डाल देता है। विलेन नायक को परास्त करने के लिए उसी का अपहरण करता या करवाता है। सिनेमा में नायिका को परिस्थिति जन्य बनाया तब भी नायिका मिथक तोड़ने के लिए सामने आई। इसके बावजूद सिनेमा की बिक्री सफलता की गहरी इच्छा रखने वाले धन वाले नायिका की पारम्परिक छवि को ही प्राथमिकता देते रहे हैं। उन्हें दुखी रोती हुई, भक्ति भावना में डूबी हुई संस्कारी महिला की छवि ज्यादा पसंद रही है। 
बाक्स ऑफिस ही अगर सफलता का पैमाना है तो वह प्रशंसा भी खूब मिली, क्योंकि वहां द्रोपदी की तरह श्री कृष्ण को लाज बचाने का अवसर मिलता है और तालियों से हाल गूंज उठता है। इस तरह पुरुष वर्चस्व का साम्राज्य बना रहा जो पुरुष प्रधान समाज की पहली पसंद भी थी। यह पुरुष निर्भर स्त्री की छवि दिखाने का समय था जो पुरुष के संग तो चल सकती है। पेड़ों के पीछे, नदी किनारे नाच-गा सकती है परन्तु किसी भी तरह स्वतंत्र व्यक्त्वि की छाया नहीं हो सकती। पुरुष के लिए पति परमेश्वर, मंगल सूत्र, करवा चौथ , मांग में सिंदूर, मर्यादोचित उपकरण बने रहे। पवित्रता के प्रतीकों को ग्लोरीफाई करने में कभी कोई कमीं नहीं रखी गई। आज के युवा दर्शक को शायद ‘साहब, बीवी और गुलाम फिल्म देखने का अवसर न मिला हो।’
‘हंटर वाली’ फिल्म ने रुपहले पर्दे पर गुलामी की जंजीरें काट कर फैंक दीं। सो हंटर उसकी पीठ पर बरसता था, अब उनके हाथ में था। ‘दामिनी’, ‘प्रतिघात’,‘खून भरी मांग’ जैसी फिल्मों ने कलात्मक मान बेशक स्थापित न किए हों किन्तु पुरुष अत्याचार के लिए पुरुष को दंडित करने की बात ज़रूर फोकस में रख दी। वह केवल यातना देने के लिए नहीं है। उसके अमानवीय हत्या की सज़ा भी उसे झेलनी ही पड़ेगी।
महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ इससे पहले स्त्री छवि का बदला हुआ रूप प्रस्तुत कर चुकी थी। इस फिल्म को फिल्म समीक्षक स्त्री अस्मिता का मील का पत्थर स्वीकार कर चुके थे। ‘धूल का फूल’ फिल्म अविवाहित मां के बच्चे की समाज में जगह टटोलती नज़र आई। समाज में जब स्त्री के अस्तित्व को लेकर टकराव के सवाल उठने लगे जिन पर गम्भीर फिल्मों ने सोचने को विवश ज़रूर किया। ‘भूमिका’ फिल्म में  स्मिता पाटिल ने अपनी अस्मिता की तलाश की तो ‘अर्थ’ फिल्म में संबंधों का नया कोण सोचती शबाना आज़मी ‘अस्तित्व’ में तब्बू स्वतंत्रता के अर्थ देती नज़र आईं।
स्त्री विषयों को पक्षधरता मिलती चली गई। नीरज चेतन की छोटी फिल्म ‘जूस ने जेंडर रोल की ज़ोरदार ढंग से बात की। अक्षय अभिनीत फिल्म पैडमैन’ उस आदमी की कहानी लेकर आई जो गांव-गांव में सस्ता नैपकिन लेकर गया। महिलाओं की सेहत के सवाल को फोक्स में रखा। ‘मुल्क’ फिल्म की तापसी पन्नू ने महिला वकील के प्रदर्शन को अहमियत दी है। महिलाओं के जीवन की जटिलाओं, संघर्ष और सशक्तिकरण को लेकर फिल्म माध्यम ने दरवाज़े खोल कर प्रगतिशीलता का परिचय दिया है।