क्या है धर्म की परिभाषा ? 


धर्म क्या है? वास्तविक धर्म कौन-सा है? धर्म के उद्देश्य क्या होने चाहिए? अतीत से लेकर वर्तमान तक अनेकानेक परिभाषाएं तो यथावत् बनी रहीं, परन्तु निजी स्वार्थ से ग्रसित धर्म के ठेकेदारों ने अपनी अलग दुकानें, मठ, आश्रम खोल लिये, जिनमें पांच सितारा होटल जैसी आधुनिक सुख-सुविधाएं सहज उपलब्ध होती हैं। इन्हें विदेशों से चन्दे के रूप में अकूत धन-राशि प्राप्त होती रहती है। 
समय-समय पर थोड़े-थोड़े अन्तराल के पश्चात् हवाई यात्राएं भी करते हैं। चन्दे के बल पर आश्रमों व मठों का साम्राज्य फैलता जा रहा है। भोली-भाली जनता का मानसिक व आर्थिक दोहन क्या न्यायोचित है? आज धर्म के नाम पर लोगों में अंधविश्वास फैलाया जा रहा है। जहां लोगों को भ्रमों में डाल कर उनका शोषण किया जा रहा है, वहीं उनको आर्थिक रूप से भी लूटा जा रहा है। यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका समाधान वर्तमान परिप्रेक्ष में ढूंढना अनिवार्य है। 
ऋषियों-मुनियों, साधु-सन्तों, युग पुरुषों ने समय-समय पर धर्म की अलग-अलग परिभाषाएं समाज में जनता के लिए प्रस्तुत कीं ताकि जनता धर्म का मार्ग अपनाकर अपना जीवन आदर्श परम्पराओं व मान्यताओं के तहत संचालित कर सके।  धर्म की परिभाषाओं के तहत इतना तो स्वत: स्पष्ट है कि सच्चा धर्म उस सूक्ष्म तत्व की भांति है कि एक बर्तन में जल भर कर और उसमें नमक डाल कर उसके मिश्रण को सूरज के ताप में रख दें तो जल वाष्प बनकर स्वत: उड़ जायेगा तथा नमक अपने स्थूल रूप में शेष रह जायेगा। ठीक इसी प्रकार धर्म है, जिसने इसका अनुभव किया है वही मन, वचन कर्म से धर्म की स्टीक व सार्थक परिभाषा प्रस्तुत करने में सक्षम है।