अवसरवादी राजनीति में खुद को उपेक्षित पाता है पार्टी कार्यकर्ता


आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने गठबंधन कर लिया है। अखिलेश यादव ने अपने तमाम कार्यकर्ताओं को हिदायत और आदेश दिया कि अब वो बसपा के खिलाफ  कुछ न बोलें और कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलें। कितना अजीब है न कि दो विरोधी विचारधारा चुनाव को देखते हुए एक हो जाती हैं। परंतु क्या सिर्फ  पार्टी के मुखिया के एक  हो जाने  से हज़ारों-लाखों कार्यकर्ता भी महज एक आदेश से अपना अस्तित्व, विचारधारा, अब तक का संघर्ष सब एक साथ भुला पाते होंगे? क्या पार्टी प्रमुखों के एकमत हो जाने से पहले इन कार्यकर्ताओं से इस विषय में राय ली जाती होगी?
ये राजनीति का अहम हिस्सा बनता जा रहा है कि ज़रूरत पड़ने पर  या सत्ता प्राप्ति के लिए किसी का भी हाथ थामा जा सकता है, चाहे फिर वो धुर विरोधी ही क्यों न हों, चाहे उनके विचार अलग ही क्यों न हों और चाहे वो कुछ दिन पहले तक  एक-दूसरे को कटघरे में ही क्यों न खड़ा कर रहे हों। वैसे भी राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन होता ही नहीं और न कोई स्थायी मित्र। यहां तो बस मौकापरस्ती, अवसरवादिता, निजी स्वार्थ और बस सत्ता प्राप्ति का लालच होता है। परंतु इन सबके बीच अगर किसी की अनदेखी होती है तो वो पार्टी कार्यकर्ता ही होता है। कार्यकर्ता ही किसी भी दल की रीढ़ होता है और वही उसका मजबूत और बुनियादी आधार भी। बड़ी अजीब बात है अपने पूरे जीवन काल में वह कई बार सिर्फ  कार्यकर्ता ही बनकर रह जाता है, अपनी पार्टी के लिए सब कुछ करने वाला, अपने नेता के एक आदेश पर कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहने वाला कार्यकर्ता तब क्या सोचता होगा जब पार्टी प्रमुख अचानक पार्टी लाइन से हटकर अपने विरोधी को गले लगा ले। कैसे वो दूसरे दल के मुखिया को अपना नेता मान ले, कैसे वो अपनी निष्ठा उसके प्रति समर्पित भाव से प्रकट करे जो कल तक उसका विरोधी था। ऐसा नहीं कि उसे फर्क नहीं पड़ता होगा ऐसे गठबंधन से, परंतु वो किससे कहे। पार्टी के चुनाव जीतते ही दिग्गज अपनी आगामी अंक गणित, बीजगणित में व्यस्त हो जाते हैं, किससे और कैसे समर्थन लें इस सोच और रणनीति में जुट जाते हैं, परन्तु जिस कार्यकर्ता ने अनगिनत रातों से जो मेहनत की है वो बस कुछ देर नाचने और मिठाई तक ही शायद सीमित रह जाती होगी, क्योंकि उसके बाद तो बड़े नेता मंत्री पद के लिए अपनी हिस्सेदारी और आकांक्षा में जुट जाता है। 
धरातल से जुड़े कार्यकर्ता से क्या कभी पूछा जाता है कि विगत वर्षों से उसकी इच्छा क्या है? अपने स्थानीय नेता के लिए जो उसने मेहनत की थी, अचानक से कोई पैराशूट उम्मीदवार आकर उस चुनावी टिकट पर अपना कब्जा जमा दे तो उस जमीनी कार्यकर्ता की मनोस्थिति क्या होती होगी? नि:संदेह उसे हताशा और निराशा ही हाथ लगती होगी परंतु फिर भी वो उसी निष्ठा से अपनी पार्टी की सेवा में लगा रहता है। यही कार्यकर्ता का समर्पण है जिसके बल पर राष्ट्रीय दल सत्ता तक पंहुचते हैं। परंतु इनके मन की बात कभी तो सुननी ही चाहिए। लेकिन कई बार कुछ भावुक और समर्पित कार्यकर्ता इस दल-बदल की राजनीति को अलविदा भी कह सकता है ये बात सभी राजनीतिक दलों को ध्यान में रखनी चहिए। आज राजनीति का मतलब चुनाव होता है ऑफ  चुनाव में जाने के बाद जीतना ही लक्ष्य होना भी चाहिए परंतु कार्यकर्ता की भावनाओं और उनकी इच्छाओं का सम्मान करना भी इन्हीं दलों की ज़िम्मेदारी भी है। कार्यकर्ता अनमोल होता है, उसका बलिदान और निष्ठा पार्टी और पार्टी नेता के प्रति होती है तो पार्टी नेता की जिम्मेदारी भी उसके प्रति अवश्य होनी चाहिये।