चुनाव और जादूगरी

ज़माना तेज़ी से बदल रहा है। यह बदलाव अच्छे के लिए है या बुरे के लिए, यह तो ऊपर वाला ही जाने। ‘ऊपर वाले की जगह’ राम या अल्लाह कहना खतरनाक हो सकता है। धर्म की बेड़ियां काफी मज़बूत होती हैं। इसी तरह हमारे प्रजातंत्र में भी नई बयार चल रही है। सत्ता और धर्म का घालमेल हो रहा है। असली जादूगर सरकार है या धर्म? धर्म-संकट में डालने वाला प्रश्न है। वैसे जादू वाली सरकार इस देश में काफी समय से चल रही है। कमज़ोर पटरियों पर सुपर-फास्ट ट्रेनें चलाना किसी जादू से कम नहीं। जादुई आंकड़ों के बल पर देश को प्रगति की बुलंदियों पर दर्शाया जा सकता है। रसातल की गहराइयों में पहुंची अर्थव्यवस्था को विकास का नाम दिया जा सकता है। वास्तव में अब सरकार शुद्ध व्यवसायी हो चुकी है। अधूरी बनी सड़क पर भी ‘टोल प्लाज़ा’ बनवाकर कर वसूलने लगती है। चुनाव के मौसम में राजनीतिक पार्टियां अपने असली रंग में आ जाती हैं। लोगों की भीड़ जुटाने के लिए अनेक हथकंडे अपनी गुदड़ी में से निकालने लगती हैं। कोई पार्टी जादू के करतब दिखलाने के नाम पर जादूगरों को अपने प्रचार-प्रसार का साधन बना लेती है। मजमा जमने के बाद नेताजी अपनी भाषणबाज़ी की कला का प्रदर्शन करने लगते हैं और लोगों को शब्दों का लोलीपॉप थमाकर दूसरे मजमे की तरफ चल देते हैं। लोग दिव्य-स्वप्न में खो जाते हैं। कोई दूसरी राजनीतिक पार्टी मंच पर नाचने वालियों से ठुमके लगवाकर अपने प्रचार को अलग से रंग दे सकती हैं। धर्म के नाम पर प्रसाद बांटने के बहाने नोटों से गरीब वोटरों को खरीदने का पुण्य कार्य भी किया जा सकता है। गरीबी से सताये देश में आम लोगों को ठगना कोई कठिन कार्य नहीं हो सकता। शब्दों की चाशनी से ही इन गरीबों का पेट भर जाता है। उधर मुफ्त में बांटी जाने वाली शराब या चन्द मुट्ठी-भर अनाज सोने पर सुहागे का काम करते हैं।वैसे भी दुनिया से स्पर्द्धा के नाम पर अब सम्पूर्ण भारत बड़ा व्यवसायिक बाज़ार बन चुका है। सभी ‘उधार’ की ज़िंदगी जी रहे हैं। ललचाते ऑफरों की तरफ आम आदमी भी शामिल हो चुका है। हमारी राजनीतिक पार्टियां भी ‘बिग सेल’ में जुटी हैं और अपनी चालों से हमारी जीवन-रस को निचोड़ने में जुटी हैं। आखिर में महा-शून्य का लाभ जनता के हाथों में आता है। शोरगुल बढ़ता जा रहा है। कोई भी राजनीतिक पार्टी सत्ता में आ जाये, जनता को लूटने से गुरेज नहीं करती। सत्ता में बैठे लोग आपके महत्वपूर्ण मुद्दों को भी मीडिया में अपने रंग में ही दर्शाने का दम रखते हैं। टिकाऊ न हो, आज हर चीज़ बिकाऊ है। मीडिया भी इससे अछूता नहीं है। राजनीतिक दलों की ‘बिल सेल’ का हिस्सा बन चुका है। ऐसे में लोगों का मीडिया पर से भरोसा उठना विचित्र नहीं है। आजकल स्कूटर पर सवार महिलाएं अपना चेहरा ढक लेती हैं। इसी धारणा पर राजनीतिज्ञों ने रंग-बिरंगे मुखौटे पहन रखे हैं, ताकि आम जनता उनके असली चेहरों को पहचान न पाये। तड़पने, रोने या फरियाद करने से कुछ होने वाला नहीं, फिर भी हवा को बदलते देर नहीं लगती।

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