समलैंगिकता पर बनती फिल्में

2019 के लिए प्रेम को अपना हैशटैग मिल गया है - रुलेटलवबी, जिसे ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ के ट्रेलर में पेश किया गया और जो इस साल का स्लोगन बन सकता है। एक महिला दूसरी महिला का हाथ पकड़े हुए है, और अपनी प्रेमिका के कंधे पर अपना सिर रखे हुए सच्चे प्रेम की राह में सियापा पर दु:ख व्यक्त कर रही है। मुहम्मद रफी ने जब ‘आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं’ गाया था तब किसी को यह अंदाजा नहीं था कि आगे आने वाले समय में इस गीत का प्रयोग दो पुरुषों के बीच प्रेम व्यक्त करने के लिए भी किया जा सकेगा। इसी तरह जब 1994 की फिल्म, ‘1942- ए लव स्टोरी’ के लिए जावेद अख्तर ने उपमाओं की भरमार करते हुए महिला सौन्दर्य का वर्णन करते हुए ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ गीत लिखा था तो कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि एक लड़की दूसरी लड़की के प्रति अपना प्रेम व्यक्त करने के लिए इस गीत का इस्तेमाल कर सकती है। निर्देशक शैली चोपड़ा धर की पहली फिल्म ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ में सोनम कपूर बिल्कुल यही कर रही हैं, जावेद अख्तर के गीत को अपनी लेडी लव के लिए गा रही हैं। हालांकि पिछले साल सितम्बर में धारा 377 को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दो वयस्कों के बीच सहमति से बने समलैंगिक संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था, लेकिन फिल्मों में एलजीबीटी चरित्रों का अभाव ही रहा है या उनको अति फ ूहड़ अंदाज में प्रस्तुत किया गया है। अब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद सोनम की फिल्म आई है और वह जो चरित्र निभा रही हैं, उससे यह अंदाजा होगा कि इस निर्णय का भारतीय फिल्मों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। क्या सोनम की भूमिका से बॉलीवुड की मुख्यधारा फिल्मों में एलजीबीट़ी समुदाय को अति-आवश्यक मंच मिल जायेगा? लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है कि क्या दर्शक ऐसी भूमिकाओं को स्वीकार कर लेंगे ? ध्यान रहे कि सोनम की भूमिका ऐसा पहला प्रयास नहीं है, उनसे पहले भी दरवाजा खोलने की कोशिश हुई है। ‘कपूर एंड संस’ (2016) की सफलता से ज़िम्मेदारी फवाद खान से ‘खूबसूरत’ (2014) में उनकी को-स्टार सोनम पर आ जाती है। ‘दोस्ताना’ (2008), जिसमें पुरुष समलैंगिक होने का नाटक करते हैं, के विपरीत ‘कपूर एंड संस’ में एक गे पुरुष कहानी के केंद्र में था। इन दोनों ही फिल्मों को करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शन्स ने बनाया था। फिल्म में फ वाद खान को ‘जनाने’ के रूप में नहीं दिखाया गया था जैसा कि हास्य डालने के लिए अक्सर फिल्मों में दिखाया जाता है, बल्कि वह अपने इर्द-गिर्द के लोगों की ही तरह सामान्य दिखाई देते हैं। ‘कपूर एंड संस’ में एलजीबीटी समुदाय का एक अन्य पहलू दिखाया गया कि वह सामान्य लोगों की तरह ही कपड़े पहनते, बोलते व व्यवहार करते हैं-बस उनका निजी झुकाव थोड़ा भिन्न होता है। ‘कपूर एंड संस’ के बाद कम फिल्मों ने ही इस संदर्भ में आगे कदम बढ़ाया है। इस फिल्म ने सीमा पार के करिश्माई एक्टर को समलैंगिक की भूमिका में कास्ट करके इमेज-बिल्डिंग एक्सरसाइज को भी तोड़ा, जिसको लेकर भारत में प्रमुख एक्टर सजग रहते हैं और ऐसी भूमिकाएं करने से पीछे हट जाते हैं जो दर्शकों में उनकी स्वीकार्य धारणा पर प्रश्न खड़े करे। ‘पद्मावत’ में मलिक काफ ूर (जिम सरभ) खिलजी (रणवीर सिंह) का किन्नर-गुलाम है, वह अपने शासक से प्रेम करता है (जो अपने में एक अलग फिल्म का विषय हो सकता है), लेकिन दोनों को बहुत कम समय के लिए बाथटब में साथ दिखाया गया है। अगर इन भूमिकाओं में स्थापित नाम न होते तो शायद इस सीन को अधिक लम्बा खींचा जाता।
एक्टर जयसूर्या की मलयालम फिल्म ‘नजन मैरीकुट्टी’ का विषय ट्रांससेक्सुअलिटी था। ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ के समकामुक ब्रोमांस से बॉक्स ऑफि स पर अधिक पिंक मनी तो अवश्य आई, लेकिन आलोचकों से प्रशंसा न मिली। फेस्टिवल फिल्में जैसे ‘इवनिंग शैडोज’ और ‘बुलबुल कैन सिंग’ में आज की कहानियां थीं। लेकिन सैफ अली खान की ‘कालाकांडी’ में हास्य डालने के चक्कर में ट्रांसफोबिया को बुरी तरह से प्रोत्साहित किया गया। इस फिल्म ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को मानव के रूप में देखा ही नहीं बल्कि हमेशा की तरह बस सेक्सुअलिटी के लेंस से ही देखा। ऐसा ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ की पटकथा लिखने वाली गजल धालीवाल का कहना है। ट्रांस महिला धालीवाल ने पुरुष के रूप में जन्म लिया था और सेक्स सर्जरी के बाद वह महिला हैं। इसलिए उनकी बात में दम नजर आता है। जाहिर है जब वह समलैंगिक रोमांस की पटकथा लिखेंगी तो उसमें अधिक संवेदनशीलता होगी, बजाय उन ब्लैक कॉमेडी के जिनमें एलजीबीटी समुदाय को मजाक बना दिया जाता है। फिल्म लेखन के लिए एलजीबीटी से प्रतिभा को लेना दोनों ऑफ  व ऑन स्क्रीन बड़ी बात है, इससे काफी मिथक तोड़ने में सहयोग मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद फिल्मकार उन कहानियों पर भी विचार करेंगे जो पहले सीबीएफ सी नियमों को पार नहीं कर पाती थीं। एक नियम यह है, ‘सेक्सुअल विकृति दर्शाने वाले सीनों से बचा जाये और अगर मामला विषय के लिए आवश्यक है तो उसे न्यूनतम कर दिया जाये और कोई डिटेल नहीं दिखाई जाये।’चूंकि अब समलैंगिकता अपराध नहीं है, इसलिए उसे अब विकृति नहीं कहा जा सकता। लिहाजा नियमों में संशोधन करके एलजीबीट़ी विषयों को सामान्य के रूप में स्वीकार किया जाये। ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ इस संदर्भ में मार्गदर्शन करने वाली फिल्म हो सकती है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर