एक संस्कारवान युवक

बस में चौबीस-पच्चीस वर्ष की एक लड़की प्रवेश करती है। पहली बात जो दिमाग में गूंजती है, वह है ‘क्या ज़माना आ गया है।’ कंधों से नीचे बाहों पर कुछ भी नहीं। घुटनों के नीचे कोई वस्त्र नहीं। मेरे आगे की सीट पर खिड़की के पास एक युवक बैठा है। तीन व्यक्तियों की सीट है। अभी केवल वही युवक बैठा है। वह लड़की बिल्कुल उसके पास आकर बैठ जाती है। खिड़की से बाहर देखती है। सामने एक युवक खड़ा है, युवक उसकी ओर देख रहा है। उसे सी.आफ करने आया है। बस खिसकने लगती है।  लड़की बाहर खड़े युवक को विश करती है। एक हवाई किस दोनों ओर से। लड़की अब भी पहले से बैठे युवक से सट कर बैठी है। युवक कुछ परेशानी महसूस कर रहा है। वह खिड़की के पास से उठता है। दूसरे सिरे पर आकर बैठ जाता है। तभी लड़की कह उठती है—‘डरपोक कहीं का। बैठे रहते मैं तुम्हें खा थोड़े ही जाती। बस सफर अच्छा कट जाता।’ और मैं सोच रहा हूं—‘अच्छा समझदार युवक है। फिसलन से बच कर जीना जानता है इसने माता-पिता की बातों को ध्यान से सुना है। उन पर अमल करता है। शिक्षा भी किसी अच्छे अध्यापक से पाई है। संस्कारवान है और संस्कारवान को आज लोग डरपोक ही पुकारते हैं।’

—के.एल. दिवान
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