ज़िंदगी—ज़िंदगी

‘पापा, कल अप्पूघर चलते हैं। दो साल हो गए हैं वहां गए हुए।’ मेरा बेटा, मुझसे यह कहा रहा था। पीयूष की बात सुनते ही मैं असमंजस में पड़ गया। पिछले दो-तीन महीनों से तो किसी-न-किसी बहाने अप्पूघर जाने की उसकी फरमाइश को टालता आ रहा था, पर अब और टालना सम्भव लग नहीं पा रहा था। मगर मैं उसे कैसे बताता कि जेब में पड़े थोड़े से रुपयों से महीने के बाकी बचे दस दिन काटना ही मुश्किल है। ऐसे में अप्पूघर कैसे जा सकते हैं, परन्तु मैं दस साल की उम्र में ही उसे ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों से वाक़िफ नहीं करवाना चाहता था, इसलिए मैंने उसे कह दिया, ‘ठीक है बेटा, कल चलेंगे अप्पूघर।’ कहते-कहते मेरी नज़र पास बैठी सुषमा से जा मिली। तभी अचानक वह कहने लगी, ‘बेटे, इस महीने तो तुम्हारे एग्ज़ाम्स हैं, तुम्हें तैयारी करनी होगी न। इसलिए अप्पूघर अगले महीने चलेंगे—ठीक है?’ सुषमा की बात सुनकर पीयूष ने ‘हां’ की मुद्रा में सिर हिला दिया। उसका चेहरा बुझा हुआ था, मगर मेरे मन में गुलाब खिल उठे थे।

—हरीश कुमार ‘अमित’
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