अब नये मुद्दे और तरीके अपनाकर चुनाव में उतरेंगी पार्टियां

वर्ष 2019 में चुनाव दस्तक दे रहा है। आज तक राजनीतिक पार्टियां घिसे-पिटे मुद्दे, जाति, धर्म, क्षेत्र इत्यादि अपना कर चुनावी मैदान में उतरती रही हैं। इस बार का चुनाव पुराने फार्मूले पर लड़ने वाली पार्टियां असफल ही रहेंगी। नया रुझान मौजूदा पार्टियों के कामकाज पर गहराई से नज़र रखने वाले मतदाता गम्भीरता से वोट बैंकों की धारणा को तोड़ने वाला सिद्ध होगा। मतदाता यह भी तो देखता है कि एक राजनीतिक दल ने पक्ष अथवा विपक्ष में रहते हुए कैसी भूमिका निभाई है। वह पार्टियों की उपलब्धियों एवं नाकामियों का भी आंकलन करता। हमारे देश में कई राजनीतिक दल आज तक जातियों और पंथों की भावनाओं को उभारकर ही सफलता के शिखर पर पहुंचते रहे हैं, अब ऐसा नहीं होगा। भारत में समाज के विभाजन की एक लम्बी परम्परा आज तक बनी रही, जिसके कारण देश का तानाबाना धीरे-धीरे उझलता ही रहा। कई तरह की कुरीतियों ने धीरे-धीरे सम्प्रदायों में पैठ बनानी आरम्भ कर दी, जिसका निवारण करना कठिन से कठिनतर हो गया। वसुधैव कटुम्बभ का जयघोष कहीं हवा हवाई ही बन कर रह गया है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों के कई राजनीतिक दल आज की जात-पात के भेद को कायम रखकर संसद में पहुंचने का प्रयास करते देखे जा सकते हैं, हालांकि मंडलायोग की रिपोर्ट के लागू हो जाने से कई जातियों की उग्रता का शमन हो चुका था, लेकिन फिर भी कुछ राजनीतिक दलों की सोच वही रही जो पिछड़ा वर्ग को कई सुविधाएं मिलने पर भी न बदल सकीं। यूं कह लीजिए कि जात-पात का अनगिनत सिरों वाला जिन्न शांत न हो सका। लगातार घटती पक्की सरकारी नौकरियों के इस दौर में भी ऊंची जातियों अर्थात् स्वर्ण लोगों में भी जगह पाने के लिए आवाज़ उठती रही। कुछ दलों ने शिक्षा एवं रोज़गार में आरक्षण की मांग को अपने चुनावी घोषणा-पत्रों में भी कहा, जिसके फलस्वरूप 10 प्रतिशत आरक्षण स्वर्ण तथा अन्य जातियों के आर्थिक आधार पर पिछड़े वर्ग को देने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ा। जातियों के क्षत्रपों को चैन कहां! वह जातियों में भेदभाव कायम रखकर सिंहासन तक पहुंचने का सुगम मार्ग देख रहे हैं। जातियों, उप-जातियों, गोत्रों और दलितों, महादलितों को बांट कर मतदाता की सही सोच को दीमक की तरह चाट रहे हैं। हमें उन लोगों पर तरस आता है जो कभी अंग्रेज़ों की बांटो और राज करो की नीति को पानी पी-पी कर कोसा करते थे, को आज युवा वर्ग इस नीति को समर्थन देगा, कदापि नहीं आज देश में उन पढ़े-लिखे युवकों की संख्या बढ़ती जा रही है जो जात-पात के ढोल को पीटना पसंद नहीं करते। हैरानी तो तब होती है जब देश के कुछ राजनीतिक नेता आज भी चुनाव का मानचित्र बनाते समय भिन्न-भिन्न खंडों में जात-बिरादरी को डालते रहते हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई कहने को तो हैं भाई-भाई परन्तु जब चुनाव आता है तब यादव, कुर्मी, पासवान, खेवट, मल्लाह जैसी जातियां अलग-अलग दलों में बंटी हुई नज़र आने लगती हैं। इस चुनाव में यह फार्मूला शायद न चल सके। हमारे देश के नेताओं को समझ लेना चाहिए कि साधारण लोग भी असाधारण ज्ञान रखते हैं इसलिए चुनाव में विस्मित कर देने वाले नतीजे प्राय: देखने को मिलते हैं। वर्ष 2014 के संसदीय चुनाव में बहन मायावती अपने दल के एक भी प्रत्याशी को जीत न दिला सकी, यही हाल अखिलेश यादव के समाजवादी दल का भी हुआ। वह बड़ी कठिनाई से मुलायम सिंह परिवार के पांच सदस्यों को विजयश्री दिला सके। क्या इन नेताओं ने अपनी विफलता पर गम्भीरता से चिन्तन किया? दूसरे मतदाताओं को कई दल अपने लिए खास वोट बैंक समझ बैठे हैं। यह सिलसिला अभी भी जारी है, जाने कब मुस्लिम युवकों में यह सोच जागृत होगी कि वह लोकतंत्र के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, केवल वोटर नहीं। मुस्लिम रहनुमाओं को भी अब वोट बैंक बने रहने से दामन बचा लेना चाहिए। आजकल इलैक्ट्रानिक मीडिया जनमत सर्वेक्षण में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में उलझा हुआ है। देश के भिन्न-भिन्न राज्यों के भिन्न-भिन्न दलों की कांटे की टक्कर दिखाई देने लगी है। कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस भाजपा से टकरा रही है तो दक्षिण भारत में कांग्रेस वामदलों एवं ए.आई.डी.एम. के. से टकरा रही है। चुनाव में कई नई बातें देखने -सुनने को मिलेंगी। शिव सेना भाजपा से महाराष्ट्र में आमने-सामने हैं तो कर्नाटक में कांग्रेस भाजपा से टकरा रही है। नया गठबंधन नये मुद्दे लेकर मैदान में उतरेगा। बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे तो हर चुनाव में उठते रहते हैं। इसमें भी उठेंगे, परन्तु आज तक मतदाता कई अन्य मुद्दों पर नेताओं के इरादों को जानना चाहता है। भाजपा हिन्दी क्षेत्र में गत चुनाव में प्रचंड बहुमत लाने में सफल रही। क्या इस बार भी पुराने मुद्दों के बूते वह सत्तासीन हो सकेगी? कांग्रेस मेले में गुम उस बच्चे की तरह दिखाई देती है जिसे किसी अपने की तलाश हो। अभी चुनाव 60 (साठ) दिन दूर हैं। देखते रहिए देश का राजनीतिक मौसम पल-पल बदलता रहेगा।