कैसे हुई  माचिस की शुरुआत

17वीं शताब्दी में चिंगारी छोड़ते फॉस्फोरस को देखना अमीरों का शौक था। कारण फॉस्फोरस बहुत महंगा था। उस समय इसकी कीमत ढाई सौ डॉलर प्रति औंस थी। यह बात सन 1669 के बाद की है। फॉस्फोरस की खोज सन 1669 में हेनिंग ब्रांट नामक रसायन विज्ञानी ने की थी। उसी ने दुनिया को फॉस्फोरस के ज्वलनशील गुणों से परिचित कराया था। फॉस्फोरस से सबसे पहले माचिस इंग्लैंड में बनाई गई। सन 1827 में जॉन वाकर ने ल्यूसीफर नाम से लकड़ी की माचिस बनाई। लैटिन भाषा में ल्यूसीफर का अर्थ है-रोशनी जलाना। संयोगवश शैतान का एक नाम ‘ल्यूसीफर’ भी है। शायद आग के विनाशकारी गुणों के कारण ही उसका ऐसा नाम रखा था। ‘ल्यूसीफर’ को अपघर्षी कागज के बीच रखकर रगड़ने से चिंगारी फूट पड़ती थी और ढेर-सा धुआं निकलता था। धुएं में सड़े अंडे जैसी बदबू होती थी। इस प्रकार की माचिसें काफी बनने लगीं। जल्दी ही पता लगा कि सफेद फॉस्फोरस स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकर है। माचिस के कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की हड्डियों टेढ़ी-मेढ़ी होने लगीं और कइयों की मृत्यु हो गई। कई मजदूरों में जबड़े जकड़ने का रोग होने लगा, जिसे ‘फॉसी जॉ’ का नाम दिया गया। माचिस की शुरुआत सन 1911 में हुआ। इस साल ‘डायमंड माचिस कंपनी’ ने अपनी माचिसों में सफेद फॉस्फोरस की जगह फॉस्फोरस के सेसक्किसल्फाइड का उपयोग किया। फॉस्फोरस का यह यौगिक पूरी तौर पर निरापद था। इससे माचिस की दक्षता में भी कोई कमी नहीं आयी। इस प्रकार माचिस के एक नए युग की शुरूआत हो गई।