बाबा नानक, सुलतान बाहू, बुल्ले शाह और मौलाना रूमी

मैंने अपनी ताज़ा पाकिस्तान यात्रा की बात करते हुए गत सप्ताह वाले कॉलम में लिखा था कि खन्ने की जमपल भावना अपने स्वातवासी पति और दो बच्चों सहित देहरा साहिब (लाहौर) के गुरुद्वारा में कई दिनों से रुकी हुई थीं। वीज़ा लगने में कोई बड़ी रुकावट थी और उन्होंने सारी उम्मीदें बाबा नानक की बख्शिशों पर लगा रखी थी, जिसको वह ‘पंजे वाला’ कहते हैं। वह बार-बार बाबा नानक का नाम लेते थे। ‘पंजे वाला करसी’ उच्चारण करके। पता चला है कि पंजे वाले की बख्शिश से वह खन्ना पहुंच गए हैं। उधर हमारे दल की नेता जसवीर कौर भी वापिस आ चुकी हैं, जो अपनी बड़ी बहन कुलवंत कौर सहित पीछे रह गई थी। स्वात शब्दावली में पंजे वाले की मेहर से। इधर मीडिया ने भारत-पाक संबंधों का धुंधलका बढ़ा दिया है। हम इस धुंधलके को हटाएं। पंजे वाले की भेजी भावना को खुशामदीद कहें। लाहौर वाली पंजाबी यूनिवर्सिटी ने 18 फरवरी को अपने अलामा इकबाल कम्पलैक्स में फैकल्टी ऑफ ओरिएंटल लर्निंग द्वारा सुलतान बाहू और मौलाना रूमी के योगदान पर सैमीनार आयोजित किया था। निमंत्रण मिलने पर हम भी हाज़िर हो गए। प्रो. नियाज़ अहमद अ़खतर उप-कुलपति अध्यक्षता कर रहे थे और पंजाबी विभाग की प्रमुख नबीला रहमान मंच संचालन। डा. सलीम अज़हर (फैकल्टी डीन) के स्वागत शब्दों के बाद दोनों महारथियों की रचनाओं और जीवन के हवाले देकर आपसी सहयोग और मित्रता के सन्देश को खुल कर प्रगट किया गया। इसके बाद बहुत ही सुरीली गायिका के साथ इस सन्देश को प्रस्तुत किया गया। सैमीनार में हिस्सा लेने के लिए ब्रैम्पटन (कनाडा) से पंजाबियत को समर्पित पांच सदस्यीय दल भी अपने प्रमुख ए.एस. चट्ठा के नेतृत्व में आया हुआ था। प्रबंधकों ने रूमी और बाहू के लिए जो विश्लेषण प्रयोग हुए थे उनके शब्द जोड़ हज़रत और मौलाना के स्थान पर हदरत और मावलाना थे। स्पष्ट है कि उस फैकल्टी में अरबी का अधिक असर है। थोड़ा-बहुत उल्लेख बाबा बुल्ले शाह का भी हुआ, परन्तु ज्यादा नहीं। हमें यह तो पता था कि यूनिवर्सिटी ने गुरु नानक देव जी की 550वीं वर्षगांठ के प्रसंग में गुरु नानक चेयर स्थापित की है, परन्तु यह नहीं जानते थे कि यह सैमीनार भी बाबा नानक को समर्पित था और गुरु नानक चेयर अधीन आयोजित था। मेरी मौसी भी दिल्ली निवासी थी। तरलोचन कौर ने अपने घर अपने बुजुर्गों द्वारा इस्तेमाल की जाती गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ सम्भाल कर रखी थी, जो शाहमुखी लिपि में है। गुरु नानक चेयर की स्थापना के बाद मैं वह बीड़ जो दो संस्करणों में है अपने साथ ले गया था। यह सोच कर कि इस तरफ के पंजाब में इसका प्रयोग करने वाला कोई नहीं और उस तरफ स्वीकार हो सकती है। हम से वह बीड़ यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति और फैकल्टी सदस्यों ने अपने सिरों पर रूमाल बांध कर पूरे मान-सम्मान से कबूल की। हम उनके द्वारा गुरु नानक चेयर की स्थापना में की गई पहलकदमी का उल्लेख कर रहे थे, तो कुलपति हमारी और से भेंट की शाहमुखी अक्षरों वाली बीड़ का धन्यवाद कर रहे थे। उन्होंने शाहमुखी लिपि वाली बीड़ पहली बार देखी थी। यह भी पता चला कि शीघ्र ही ननकाना साहिब में भी यूनिवर्सिटी स्थापित हो रही है। जसवीर कौर ने सुनते ही प्रस्ताव पेश किया कि वहां बेबे नानकी कालेज भी होना चाहिए। सभी ने मुस्करा कर स्वीकृति दी। दोपहर का खाना खाते हुए बाबा बुल्ले शाह के योगदान का उल्लेख हुआ तो मैं भी था, अख्तर साहिब को बताया कि मेरे मित्र बरजिन्दर सिंह हमदर्द ने बुल्ले शाह के कलाम को अपनी सुरीली आवाज़ में भर कर एक एलबम तैयार की है, जो पंजाब से चलने के समय मेरे हाथ लगी थी। मैंने अपने साथ लानी थी, परन्तु भूल गया। एलबम का नाम ‘रुहानी रमज़ां’ है, जो सैमीनार के विषय से मेल खाती है। वी.सी. साहिब की प्रतिक्रिया और भी प्रिय थी। ‘ले आते तो हम स्वयं भी सुनते और सैमीनार के श्रोताओं को भी सुना सकते थे।’ अख्तर साहिब का स्वभाव और रवैया असली पंजाबियों वाला है। जब हमने विदा मांगी तो कहने लगे ‘आप यहीं रह जाएं खान।’ यह कहते समय उनका ध्यान मेरे साथ गई महिलाओं की और था। ‘रूहानी रमज़ां’ की बात फिर करेंगे। हाल के समय आठों में से पहली रमज़ ‘अंतिका’ के तौर पर।

अंतिका....
(बाबा बुल्ले शाह)
क्या जाण मैं कोई रे बाबा..
जो कोई अंदर बोले चाले
ज़ात असाडी सोई
जिसदे नाल मैं निहूं लगाएया
ओहो जेही होई रे बाबा
चिट्टी चादर लाह सुट्ट कुड़ीये
पहिन फकीरी दी लोई
इस चादर नूं द़ाग लगेगा
लोई नूं द़ाग न कोई
जो किछु करसी अलाह भाण
किया किछु करसी सोई
जो किछु लेख मत्थे दा लिखिया
उस ते शाकिर होणी वे बाबा
किया जाणा मैं कोई!