विरोधाभासों से बोझिल होता जाता महागठबंधन

विपक्ष के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव करो या मरो की तरह बन चुका है। अभी उत्तर प्रदेश को छोड़कर कहीं भी गठबंधन की तस्वीर साफ नहीं हुई है, इसलिए अभी यह कहना मुश्किल है कि विपक्ष अपने इरादों में सफल हो सकता है या नहीं लेकिन अभी से यह हालात बनते नजर आ रहे हैं कि विपक्ष अपने विरोधाभासों के बोझ से दबकर अपना भविष्य दांव पर लगाने जा रहा है।  मोदी के खिलाफ खड़े होने के लिए विपक्ष ने बहुदलीय व्यवस्था वाले देश में विचारधारा की जगह अपने-अपने स्वार्थों को ही महत्त्व दिया है। मोदी का विरोध मुद्दों की जगह व्यक्तिगत हो गया है। यहां तक कि भाजपा विरोध भी भुला दिया गया है। इस अन्धे विरोध ने भाजपा के कुछ नेताओं के लिए भी संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं क्योंकि भाजपा की 150 से 200 के बीच सीटें आने पर विपक्ष के कई दल मोदी के अलावा किसी अन्य भाजपा नेता के नेतृत्व की छतरी के नीचे आने में गुरेज नहीं करेंगे। वैसे भी मोदी जी का व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि वे एक ऐसी लंगड़ी सरकार का नेतृत्व करने की कोशिश भी करें। किसी अन्य भाजपा नेता के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनने की संभावनाएं इसलिए भी ज्यादा हैं क्योंकि भाजपा को छोड़कर किसी अन्य दल के नेतृत्व में बनी सरकार ज्यादा देर तक टिक नहीं पाएगी। अभी तक शान्त दिख रहे दल इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ममता, मायावती और राहुल अपनी ढपली बजाते रहें लेकिन अभी उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं बहुत कम नजर आ रही हैं। अब विरोधाभासों की बात करें तो मायावती और अखिलेश के बीच भी विरोधाभास कम नहीं हैं। मायावती जिस घोटाले में फंसी हुई हैं उसमें कार्यवाही की शुरुआत अखिलेश सरकार के समय ही हुई थी और मायावती के खिलाफ ज्यादातर मामले समाजवादी पार्टी द्वारा ही दर्ज किए गए हैं। यही हाल अखिलेश यादव का है। उनके खिलाफ भी मामले बसपा द्वारा ही दर्ज कराए गए थे। आज बेशक दोनों नेता अपने आपको फंसा पाकर भाजपा को कोस रहे हैं लेकिन दोनों ही जानते हैं कि उन्होंने एक-दूसरे को फंसाया है लेकिन एक सच यह भी है कि उन्होंने गलत नहीं फंसाया है, इसलिए देर सवेर उन पर लगे आरोप सच साबित हो जाने वाले हैं। एक विरोधाभास यह भी है कि 2017 से पहले दोनों दलों के कार्यकर्त्ता एक दूसरे के दुश्मन हुआ करते थे और आज उनके नेता आपस में मिल गए हैं तो क्या जरूरी है कि वो भी आपस में मिल जाएंगे। कांग्रेस की बात की जाएं तो उत्तर प्रदेश में उसे सपा-बसपा ने अपने गठबंधन से बाहर रखा है इसलिए चुनाव प्रचार में इनमें भी आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलने वाला है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि विपक्ष के ज्यादातर दल कांग्रेस विरोध में ही पैदा हुए हैं और उनके कार्यकर्त्ताओं के मन में गहरा कांग्रेस विरोध जड़े जमाये हुए है। बेशक नेता अपने-अपने स्वार्थों से वशीभूत होकर कांग्रेस के कदम से कदम मिलाकर चलने को तैयार हों लेकिन कार्यकर्त्ता इतनी आसानी से जुड़ने वाले नहीं हैं। एक बड़ा विरोधाभास यह भी है कि कांग्रेस के समर्थन से बनने वाली पिछली सरकारों को कांग्रेस ने बीच रास्ते खुद ही लंगड़ी मारकर गिराया है और ऐसे में कांग्रेस के नेतृत्व में बनने वाली सरकार से बदला लेने का विचार विपक्षी दलों को क्यों नहीं आएगा? 
दिल्ली में भी कांग्रेसी नेता केजरीवाल के खिलाफ खड़े होंगे। आम आदमी पार्टी पंजाब में कांग्रेस के खिलाफ ताल ठोक रही है। हरियाणा में कांग्रेस के साथ कोई चलने को तैयार नहीं दिखाई दे रहा है। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस विपक्षी दलों को साथ लेकर चलने की रणनीति में कामयाब नहीं हो पाई थी। क्या यह सच आपको नहीं पता है कि कांग्रेस और विपक्षी दलों में केवल नेतृत्व को लेकर ही मतभेद नहीं बल्कि विचारधारा में भी कहीं कोई मेल नहीं है। कांग्रेस और विपक्षी दलों की केवल एक विचारधारा आपस में मिलती है और वो है किसी भी तरीके से मोदी को हटाना। अब सवाल उठता है कि यदि ये लोग सचमुच में मोदी को हटाने में कामयाब हो गए तो उसके बाद कौन सी विचारधारा इन्हें एक रख सकेगी? तीन राज्यों की जीत के बाद कांग्रेस बदली-बदली नजर आ रही है और कांग्रेस के कार्यकर्त्ता भी उत्साहित हैं। ऐसे में कांग्रेस के लिए उन्हें केवल भाजपा विरोध तक सीमित रखना संभव नहीं है। यदि विपक्ष की सरकार बनती है तो कांग्रेसी कभी नहीं चाहेंगे कि गांधी परिवार के अलावा कोई भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो दूसरी तरफ विपक्षी राहुल या प्रियंका के नेतृत्व को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। मोदी को हटाना इतना आसान नहीं है जितना विपक्षी दल सोच रहे हैं। समस्या मोदी को हराना नहीं है बल्कि मोदी की जगह लेना समस्या है। यही कारण है कि जब भी नेतृत्व की बात आती है तो विपक्षी दलों का यही जवाब होता है कि हमारे पास बहुत नेता हैं जो प्रधानमंत्री बन सकते हैं और चुनावों के बाद इस पर फैसला हो जायेगा। वास्तव में अगर अभी यह फैसला किया गया तो विपक्षी दलों की एकता की संभावना खत्म हो जाएगी। इसलिए विपक्षी दलों के पास केवल एक मुद्दा है और वो मोदी को हटाना है लेकिन मोदी का विकल्प क्या होगा, इस पर बात करने की हिम्मत किसी भी दल के पास नहीं है। वास्तव में आज भाजपा ऐसी जगह आकर खड़ी हो गई है जहां उसकी जीत तो जीत होगी ही लेकिन हार भी जीत से कम नहीं होगी।